तू अपनी जान पे तलवार बन के बैठा है
अमीर हो के भी नादार बन के बैठा है
मेरी अना ने ही मगरूर कर दिया मुझको
मेरा वजूद ही दीवार बन के बैठा है
मैं तेरे शह्र में अनजान बन के रहता हूँ
न जाने कौन है ? दिलदार बन के बैठा है
मैं तेज धूप में सर को छुपाने आया था
यहाँ तो शम्स ही दीवार बन के बैठा है
चमन में तितलियाँ आएं तो किसलिए आएं
यहाँ तो माली ही पुर खार बन के बैठा है
“ख़ान”अशफाक़ ख़ान
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