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नागरिकता संशोधन बिल और NRC में मानवीयता का पहलू कहाँ है ?

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कितने आश्चर्य की बात है कि कोई डेढ़ साल पहले जब नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीज़न यानी एनआरसी का अंतिम ड्राफ़्ट जारी हुआ तो इसी सुशोभित ने फ़ेसबुक पर उसके समर्थन में पोस्ट लिखी थी।
वह पोस्ट आज भी मौजूद है। वह 31 जुलाई 2018 को प्रकाशित हुई। 1072 लाइक्स, 189 कमेंट्स, 109 शेयर्स। तब के मानदंडों पर बड़ी साधारण बात। उन दिनों मेरी हर पोस्ट पर हज़ार, डेढ़ हज़ार, दो हज़ार, ढाई हज़ार लाइक्स आते थे। किसी को भी आ जाएंगे, अगर आप बहुसंख्या को प्रसन्न करने वाले तर्क दे सकें। संख्या का खेल है। जो बात सब लोग सुनना चाहते हैं, वह कह दीजिए और आप सफल हैं। इनकी दृष्टि में नायक हैं। अपनी नज़र में गिरे बिना किंतु कोई भी मनुष्य लम्बे समय तक यह कृत्य नहीं कर सकता।
मैंने अपनी पोस्ट में तर्क दिए थे कि एक होता है नेशन-स्टेट, दूसरा होता है ग्लोबल-विलेज। ग्लोबल-विलेज सांस्कृतिक अवधारणा है, नेशन-स्टेट राष्ट्रीय अवधारणा है। सांस्कृतिक अवधारणा में आवाजाही सरल है, राष्ट्रीय अवधारणा में सम्प्रभुता का महत्व है। आगे मैंने कहा- सीमारेखाएं होंगी तो संविधान होगा, सम्प्रभुता होगी, नियम-क़ानून होंगे, जनगणना होगी, नागरिकता के पैमाने होंगे, सांस्कृतिक और नस्ली एकता होगी, और जो भी इन मानदंडों के बाहर छूट जाएगा, उसे “अवैध नागरिक” क़रार दे दिया जाएगा। अब चाहें तो इस पर विलाप कर सकते हैं, किंतु सत्य तो यही है।
तर्क की भाषा, ताक़त की भाषा, सांख्यिकी की भाषा, नियम की भाषा, जिसमें मानवीय संदर्भ का लोप हो जाता हो। डेढ़ साल में कितना बदल गया। अपने दु:ख ने दूसरों के दु:खों की चेतना जगाई। ऐतिहासिक रोष का शमन किया, जिसको स्वयं को हिंदू नहीं मानने के बावजूद अपने पर थोप रखा था। नागरिक-धर्म की परख मिली। निर्बल व्यक्ति के शोक का चिंतन आया। राज्य और व्यक्ति में से हमेशा व्यक्ति की भाषा बोलना चाहिए, राज्य की नहीं, यह विवेक आया। यह सब पिछले डेढ़ सालों में हुआ है। उसमें भी अभी विगत दो-तीन महीनों में गांधी जी पर मनन किया तो चेतना और निर्मल हुई। महात्मा ने कर्तव्य, दायित्व, नैतिकता, मनुष्यता के मानदंड सिखलाए। समाज का अंतिम व्यक्ति आंख से ओझल न हो, यह समझ में आया। यह मेरी निजी यात्रा रही है।
अल्ट्रा-लेफ़्ट का धुर विरोध करने के कारण फ़ार-राइट मान लिया गया, समय-समय पर इस धारणा का खंडन करने के सजग प्रयास भी किए, किंतु राइट-टु-सेंटर की विचार-दिशा ही बनी रही। अब यह विचार-दिशा सेंटर-टु-लेफ़्ट हो गई है, वैसा नहीं है। राजनीतिक निष्ठाएं बदल गई हों, वैसा भी नहीं है- वो तो पहले भी नहीं थीं। किंतु चिंतन के संदर्भ और व्यापक हुए हैं। सहानुभूतियों का विस्तार हुआ है। शक्ति की भाषा बोलने वाला उद्दंड और उदग्र कभी भी शुभ कर्म नहीं कर सकता, यह विचार जम गया है। साधन-शुचिता की बात रुच गई। अतीत के अन्यायों को वर्तमान पर नहीं थोपने का विवेक उगा। समस्त समुदायों को एक धारणा में हांकने की बात बुरी है, यह सोच आई। हज़ार बुरे हों, कोई तो अच्छा भी होगा, उसी अच्छे के बारे में सोचकर चलें, यह गांधी जी ने सिखलाया है। इस सीख की मूल्यवत्ता है।
ये बातें सुनने में अच्छी लगती हैं कि अवैध घुसपैठियों को खदेड़ दिया जाएगा। जो अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर सके, उन विदेशियों को निगरानी शिविरों में भेज दिया जाएगा। किंतु इसमें मानवीय संदर्भ कहां पर है? यह तो सत्ता की भाषा है, जो मनुष्य पर विपदा बनकर टूटती है। मेरे ही पुरखे मेवाड़ के जाने किस गांव से झाबुआ चले आए, वहां मैं जन्मा। उज्जैन में पला-बढ़ा। इंदौर में घर बनाया। भोपाल में किराये का घर लेकर रहता हूं। मेरे पास तो प्रमाण नहीं कि भारतीय हूं। दस्तावेज़ चाक-चौबंद रखने वाले चतुरसुजान तो विरले ही होते हैं, ग़रीब-गुरबों के पास तो काग़ज़-पत्तर का बड़ा संकट है। ये सारे काम छोड़कर क़तारों में खड़े हो जाएं तो रोटी कमाने कौन जाए? ये अपनी भारतीयता प्रमाणित नहीं कर पाएं तो इन्हें कौन-से शिविर में रहने भेजा जाए? इन्हें खदेड़ दिया जाए तो कौन-सा देश इनको अपनाए? रोहिंग्याओं की तरह ये समुद्र में लावारिस भटकते रहें। दूसरे देश के प्रताड़ित को अपनाएं तो उसकी प्रताड़ना का प्रमाण-पत्र कौन दे? ये तो ह्यूमन ट्रैजेडी के प्रतिरूप हैं। इसमें कौन-से राष्ट्रवाद की विजय हो गई, इससे कौन-सा हिंदू धर्म बलवान हो गया?
अब एनआरसी को पूरे भारत में लागू करने की योजना है। ये सरकार तो यह वादा करके आई थी कि हम कम से कम हुकूमत और ज़्यादा से ज़्यादा गवर्नेंस की नीति रखेंगे। इसकी हुक्मशाही अब इतनी क्यों बढ़ती है? पुराने नोट बदलने के लिए लोगों को क़तार में लगा देना, फिर अपनी भारतीयता प्रमाणित करने के लिए पंक्तिबद्ध कर देना, यह कौन-सी प्राथमिकता है? क्या शेष सारी समस्याओं का हल हो चुका है, जो ये नई समस्याएं खड़ी की जाती हैं? जब संसद में गृहमंत्री भाषण देते हैं कि हम तो पड़ोसी देशों के दुखियारों को पनाह दे रहे हैं, यह तो मनुष्यता का तक़ाज़ा है, इससे आपको क्या, तो इस पर विश्वास करने का आधार क्या हो? जब आप सीएबी से एनआरसी की तुक मिलाते हैं तो जो चित्र उभरकर सामने आता है, वह सुंदर नहीं है।
निर्धन का कोई बल नहीं होता। किसी गांव-खेड़े में किसी भी निर्धन की जान किसी अफ़सर के हवाले कर देना भयावह है, जो उससे एनआरसी का हलफ़नामा मांगेगा और नहीं देने की स्थिति में उसकी नियति का स्वामी बन जाएगा। इससे कितना भ्रष्टाचार फैलेगा? कितने फ़र्ज़ी प्रमाण पत्र बनेंगे? कितने लोगों को प्रताड़ित किया जाएगा? कितने लोग मजबूर होकर नौकरशाही की चक्की में पिसेंगे? इनमें भी विशेषकर मुसलमानों की आफ़त है। मुसलमानों ने सन् सैंतालीस में पाकिस्तान ले लिया, ऐसा कहकर आज उनकी जान सांसत में डाल देना तो न्याय की बात नहीं।
असम में 3.3 करोड़ लोगों को एनआरसी की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा। इस पर 1220 करोड़ रुपया ख़र्च हुआ। 19 लाख लोग अपनी नागरिकता प्रमाणित नहीं कर सके, इनमें से लगभग 13 लाख लोग तो हिंदू ही थे। ये अब अपनी नागरिकता कैसे प्रमाणित करें? सीएबी की कृपा से जो बच जाएंगे, वे ठीक, जो नहीं बच सकेंगे, उनका क्या? क्या वे सभी घुसपैठिये थे, क्या उनमें से कुछ सच में ही खदेड़े गए दुखियारे नहीं थे, क्या किसी देश में वहां की बहुसंख्यक आबादी सदैव ही सुखी होती है, उसे कोई कष्ट नहीं होते? धार्मिक आधार पर प्रभुत्व वाले लोगों को सूची से छोड़ने का तर्क कैसे है, आर्थिक आधार पर क्यों नहीं, लैंगिक आधार पर क्यों नहीं? मानवीय शोक में श्रेणी का चिंतन ही क्यों करना? यूट्यूब पर जाकर आप लिखें- असम एनआरसी डिटेंशन कैम्प्स, तो जो तस्वीरें और नज़ारे उभरकर सामने आते हैं, वे अमानवीय हैं।
क्या आपको मालूम है कि असम में गोलपाड़ा, डिब्रूगढ़, जोरहट, सिलचर, कोकराझार, तेज़पुर में ज़िला जेलों को निगरानी शिविरों में तब्दील कर दिया गया है? अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए लोगों को वहां डिटेन किया गया है? सीएबी इनमें से अपनों को छोड़ने और परायों को पकड़े रखने की मशीनरी है। वह एनआरसी का बाय-प्रोडक्ट है। ये दोनों नियम एक साथ युति बनाकर काम करते हैं। फ़ॉरेनर्स ट्राइब्यूनल्स जैसी संस्थाएं नागरिकों के भविष्य की नियंता बन गई हैं। असम में वैसे 200 ट्राइब्यूनल्स आज की तारीख़ में संचालित हो रहे हैं। फ़ॉरेनर्स एक्ट 1946, पासपोर्ट एक्ट 1920 और संशोधित सिटीज़न एक्ट 1955 भी सहसा अधिक प्रभावी हो उठे हैं। भारत को एक शिविर में बदला जा रहा है।
असम तो छोटा-सा राज्य है, जब इसी एनआरसी वर्जिश को पूरे देश पर लागू किया जाएगा, तो क्या होगा? कितने बड़े पैमाने पर सरकारी मशीनरी इसके लिए सक्रिय होगी, कितना पैसा लगेगा, कितने लोग प्रभावित होंगे? क्या यही सब सरकार की वरीयता है? क्या इसी के लिए इसको चुनकर भेजा गया था? जब मैं नागरिकता संशोधन विधेयक पर लिखता हूं तो हिंदू राष्ट्रवादी आकर बड़ी ढिठाई से पोस्ट पर लॉफ़िंग रिएक्शन देते हैं। इन्हें किस बात की हंसी आ रही है? इन्हें किस बात का आनंद है? क्या ये लोग करुणा की भावना से भरे हैं, जैसा कि प्रचारित किया जाता है? पड़ोसी देशों के दुखियारों के प्रति मानवता और दया और सद्भावना से भरे लोग?
आप इनकी भाषा देखिये। इनका कार्य-व्यवहार देखिये। इनकी डीपी, कवर फ़ोटो, इंट्रो, इनके फ़ेसबुक शेयर्स की पड़ताल कीजिये और आपको तस्वीर साफ़ हो जाएगी। इन लोगों का क्रियाकलाप राक्षसी और अमानवीय है, इनमें संवेदना और विवेक का अभाव आ चुका है, धैर्य इन्हें त्याग चुका है, ये इंटरनेट-हिंदुत्व की कठपुतलियां बन चुके हैं, रटी-रटाई बातें दोहराते चलते हैं। इनका हिंदू होना इनके मनुष्य होने पर ग्रहण लगा चुका है। ये औरों पर आक्षेप लगाते रहते हैं, इतिहास से मनगढ़ंत तर्क प्रस्तुत करते हैं, एक ग़लीज़ क़िस्म के ग़ुस्से और कुंठा में डूबे रहते हैं। इनका साहचर्य किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को स्वीकार्य नहीं हो सकता। मैं इनको अपने से दूर रहने का ही अनुरोध करता हूं। किंतु उनका अट्‌टाहास और उनकी कुत्सित मानसिक तुष्टि मुझे बार-बार इस बात पर विश्वास करने को प्रेरित करती है कि भारत में कुछ कुरूप रचा जा रहा है।
सभी को बहुत सचेत रहने की आवश्यकता है। अपनी जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय पहचान को त्यागकर मानवीय संदर्भों को आलोकित करने का भी यही क्षण है। इस यात्रा में आपका निष्कलुष विवेक ही आपके अंत:करण का सहभागी बन सकता है, और कोई नहीं। व्यापक परिप्रेक्ष्यों में चीज़ों को देखें और सामूहिकता के आप्लावन में अपने विवेक को मरने ना दें, यही अनुरोध है। इति।
~ सुशोभित