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गठबंधन की सरकारें और विचारधारा का सवाल

by Vijay Shanker Singh · November 27, 2019

महाराष्ट्र में अब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार बनेगी। यह एक अजूबे की तरह से भी देखा जा रहा है औऱ अचानक भारतीय संसदीय राजनीति में विचारधारा के अस्तित्व और प्रासंगिकता पर एक बहस छिड़ गयी है। लोग कह रहे हैं यह केर बेर के संग जैसी दोस्ती होगी। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस में तो कोई वैचारिक भिन्नता और अंतर्विरोध नही है, लेकिन शिवसेना से इन दोनों कांग्रेस पार्टियों का विरोध है।
एनसीपी का गठन, शरद पवार और नॉर्थ ईस्ट के कद्दावर नेता, पीए संगमा ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से ही निकल कर किया था। हालांकि यह मुद्दा उछला तो बहुत पर इससे जनता में बहुत प्रतिक्रिया नहीं हुयी। फिर जब 2004 में कांग्रेस संसदीय दल की नेता चुने जाने के बावजूद सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री की शपथ न लेकर डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद पर कांग्रेस के नेता के रूप में आगे कर दिया तो यह मुद्दा स्वतः हल्का हो गया।
पहले एनसीपी का अस्तित्व नॉर्थ ईस्ट में भी था, पर पीए संगमा के न रहने पर अब यह दल नॉर्थ ईस्ट में भी बहुत सक्रिय  नहीं रहा। बल्कि वहां इस दल का अधिकांश भाग कांग्रेस में ही समा गया। केवल महाराष्ट्र में यह दल मजबूती से अब भी है, और इसका कारण शरद पवार का निजी प्रभाव और उनका व्यापक जनाधार है। एनसीपी की राजनीतिक सोच मौलिक रूप से कांग्रेस की विचारधारा के समरूप ही है। अतः एनसीपी और कांग्रेस दोनों को एक साथ मिलने और सरकार बनाने में कोई समस्या नहीं आएगी। शरद पवार न केवल एनसीपी के सर्वेसर्वा और इस समय महाराष्ट्र के सबसे कद्दावर नेता के रूप में स्थापित हैं, बल्कि वे कांग्रेस के भी एक मान्य नेता के तौर पर उभर कर आ गए हैं।
शिवसेना का समीकरण और राजनीतिक सोच, ज़रूर एनसीपी और कांग्रेस से अलग है। शिवसेना उस तरह की राजनीतिक पार्टी नहीं है, जैसी की अन्य वैचारिक आधार पर गठित होने वाली राजनीतिक पार्टियां होती हैं। मूलतः यह एक दबाव ग्रुप है, जो बाद में एक राजनीतिक दल के रूप में विकसित हुआ और इसका कैडर जिसे शिवसैनिक कहा जाता है। वह किसी खास विचारधारा के प्रति कम बल्कि अपने सुप्रीमो बाल ठाकरे और अब बाला साहब के न रहने पर उनके बेटे उद्धव ठाकरे के प्रति निजी तौर पर, समर्पित और वफादार है।
बाला साहेब ठाकरे ने महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों के अधिकारों के संघर्ष के लिए 19 जून 1966 को शिवसेना की नींव रखी थी। ठाकरे मूल रूप से एक पत्रकार और कार्टूनिस्ट थे और राजनीतिक विषयों पर तीखे कटाक्ष करते थे। वे स्वभाव से भी आक्रामक थे और यही आक्रामकता उनकी और उनके पार्टी की  यूएसपी बन गयी। वैसे तो शिवसेना का अस्तित्व कई अन्य राज्यों में  भी है, लेकिन महाराष्ट्र में, इसका राजनीतिक प्रभाव सबसे अधिक है।
शिवसेना के गठन के समय बाला साहेब ठाकरे ने नारा दिया था, ‘अंशी टके समाजकरण, वीस टके राजकरण’ (80 प्रतिशत समाज और 20 फीसदी राजनीति)। लेकिन भूमिपुत्र का मुद्दा लंबे समय तक नहीं चल सका। इसपर समर्थन कम होने के कारण शिवसेना ने हिन्दुत्व के मुद्दे को अपना लिया, जिसपर वह अब तक कायम है।
एक दृष्टिकोण यह भी है कि बंबई में कम्युनिस्ट प्रभाव को कम करने के लिये कांग्रेस की शह पर बाल ठाकरे को आगे कर के शिवसेना की नींव रखी गयी थी। जो पहले मराठी मानुस के नाम पर तमिल समाज या दक्षिण भारतीयों के खिलाफ मुखर हुयी बाद में यही रवैया उसका उत्तर भारतीयों विशेषकर, उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रति हो गया। 1970 के शुरुआती दिनों में पार्टी को काफी लोकप्रियता मिली। इस दौरान दूसरे राज्यों विशेष रूप से दक्षिण भारतीय लोगों पर महाराष्ट्र में काफी हमले हुए। 1970 के बाद शिवसेना का भूमिपुत्र का दांव कमजोर होने लगा। इसपर पार्टी ने हिंदुत्व के मुद्दे पर आगे बढ़ना शुरू किया।
शिवसेना ने पहली बार 1971 में लोकसभा चुनाव में लड़ा था लेकिन पार्टी एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी। 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार शिवसेना का सांसद चुना गया। शिवसेना ने पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 1990 में लड़ा जिसमें उसके 52 विधायकों ने जीत हासिल की। शिवसेना ने भाजपा के साथ 1989 में गठबंधन किया था जो 2014 तक चला। शिवसेना के दो नेता मनोहर जोशी और नारायण राणे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) पर भी लंबे समय से शिवसेना का कब्जा है।
सरकार बनाने के लिये वैचारिक समानता की बात संसदीय लोकतंत्र में उसी दिन से महत्वपूर्ण नहीं रही जिस दिन से 1967 में डॉ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी और जनसंघ ने एक दूसरे से वैचारिक ध्रुवों पर रहने के बावजूद गैर कांग्रेसवाद के मुद्दे पर एक साथ सरकार बनाई और चलाई थी। यह अलग बात है कि आपसी कशमकश और आये दिन के टकराव से वह सरकार चल नहीं पाई। जल्दी ही मध्यावधि चुनाव हुए।
यह सरकारें संयुक्त विधायक दल संविद सरकार के नाम से जानी जाती हैं। इन सरकारों के बनने और गिरने की तीव्रता के कारण कांग्रेस ने स्थायी और टिकाऊ सरकार का नारा दिया जो, पहले 1971 और फिर 1980 में उसकी सत्ता में वापसी  का मुख्य कारण बना। 1967 में सभी विरोधी दलों के समक्ष मुख्य मुद्दा था कांग्रेस को हराना। डॉ लोहिया और जनसंघ की विचारधारा में कहीं से कोई मेल ही नहीं था। गैरकांग्रेसवाद के सिद्धांत ने दोनों को एक साथ ला दिया।
1971 में भी इंदिरा गांधी की नयी नयी प्रगतिशील कांग्रेस, जो बैंको के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स हटाने के प्रगतिशील निर्णयों के कारण लोकप्रिय हो चली थी, को हराने के लिये समाजवादी गुटों, जनसंघ, कांग्रेस का ही एक रूप संघटन कांग्रेस और राजाओं के दल स्वतंत्र पार्टी ने महागठबंधन या ग्रैंड एलायंस बना कर एक साथ चुनाव लड़ा पर यह महागठबंधन बुरी तरह पराजित हुआ। इंदिरा गांधी की वह धमाकेदार जीत थी। यह सरकार 1977 तक चली। और जब 1977 में इंदिरा गांधी हारी तो उसका कारण आपातकाल का तानाशाही फैसला था।
केवल कम्युनिस्ट पार्टियां किसी ऐसे गठबंधन में शामिल नहीं हुयी। 1971 से 1977 तक सीपीआई ज़रूर कांग्रेस के साथ थी पर सीपीएम कांग्रेस के विरोध में थी। सीपीआई केंद्रीय सरकार में नहीं थी पर उसके दिग्गज नेता श्रीपाद अमृत डांगे और मोहित सेन, इंदिरा गांधी के साथ थे। और उनका तर्क था कि वे कांग्रेस के जनहितकारी नीतियों, प्रिवीपर्स का खात्मा और बैंको के राष्ट्रीयकरण के काऱण साथ हैं। पर जब इमरजेंसी लगी तो इंदिरा विरोध की आंच सीपीआई तक भी पहुंची और सीपीआई को इसका नुकसान उठाना पड़ा।
स्थिति यह भी बाद में आयी कि भारत मे कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक रहे एसए डांगे को कम्युनिस्ट पार्टी ने ही विचारधारा के आधार पर समझौता करने के आरोप में पार्टी से निकाल दिया। सीपीएम अपनी जगह मजबूती से खड़ी रही। बंगाल और केरल में बनने वाला वाम मोर्चा और एलडीएफ, लेफ्ट एंड डेमोक्रेटिक फ्रंट लगभग समान विचारधारा वाले दलों का गठबंधन है जो सीपीएम के नेतृत्व में चुनाव लड़ता हैं और चुनाव जीतने पर मिल कर सरकार बनाते हैं, जो स्थायी होती है।
1977 में जनता पार्टी का प्रयोग भी वैचारिक विभिन्नता के बावजूद एक साथ सरकार बनाने का था। पर यह भी कांग्रेस के आपातकाल जन्य अधिनायकवाद के विरुद्ध बनी हुयी एकजुटता थी जो जब अधिनायकवाद का खतरा कम हो गया तो अपने आप उसे जोड़े रखने वाली कड़ी कमज़ोर पड़ गयी और फिर वैचारिक प्रतिबद्धता के रूप में दोहरी सदस्यता का मामला समाजवादी खेमे से उठा और भाजपा का जन्म हुआ, क्योंकि भाजपा के लोग आरएसएस की सदस्यता छोड़ ही नहीं सकते थे, क्योंकि वही तो उनका स्थायी भाव है।
फिर जब एनडीए और यूपीए के रूप में अलग अलग राजनीतिक दलों के गुट एकजुट हुये तो वैचारिक द्वंद्व से समझौता करना पड़ा। यह दोनों ही बहुदलीय गुट लंबे समय तक सरकार में रहे और यह सरकारें लंबे समय तक चली । 1996 से 2014 तक के दौर में एक ही राजनैतिक दल को लोकसभा में बहुमत नहीं मिल सका और विभिन्न दलों ने अपने को मिलाजुला कर दो एलायंस बनाये। यह गठबंधन भी वैचारिक रुप से एक नहीं था। यहां भी जार्ज फर्नांडिस, शरद यादव, नीतीश कुमार जो समाजवादी खेमे के थे और हैं, अब भी अपने से विपरीत विचारधारा के दल भाजपा के साथ सहजता से लंबे समय से सरकार में रहे हैं, और अब भी है।
जम्मूकश्मीर में भाजपा और पीडीपी की साझा सरकार, वैचारिक रूप से ध्रुवीय दलों के एक साथ सरकार बनाने और तीन साल तक उसे चलाने का एक हालिया और उत्कृष्ट  उदाहरण है। भाजपा और पीडीपी की विचारधारा का तो कोई मेल ही नहीं है। पर राजनीति में कभी भी, कही भी, कुछ भी हो सकता है। बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू और भाजपा की दोस्ती आज भी वैचारिक मतभेदों के बावजूद कायम है। उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा की बिल्कुल अलग अलग और विपरीत विचारधारा के बावजूद ढाई ढाई साल की सरकार बनी और पहले ढाई साल तक मायावती यूपी की मुख्यमंत्री रहीं और फिर जब भाजपा का क्रम आया तो कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। यह अलग बात है कि, मायावती ने कल्याण सिंह की सरकार को चलने नहीं दिया, गिरा दिया।
अपने अपने स्वार्थ, साझा, निकट और त्वरित उद्देश्य, राजनीतिक दलों को बदली हुयी परिस्थितियों में एक साथ होने और सरकार बनाने पर विवश करते रहे है। जब वैचारिक आधार वाले दल का कोई व्यक्ति अपना दल छोड़ कर विपरीत या भिन्न वैचारिक आधार के दल में जाता है तो न तो उसकी विचारधारा रातोरात बदलती है और न ही उसे स्वीकार करने वाला दल उसकी विचारधारा से, जिसे वह छोड़ कर आया है से रातोरात तालमेल बिठा पाता है। दल को संख्या चाहिये और आने वाला व्यक्ति  भले ही विपरीत विचारधारा का हो वह सत्ता में लाने लायक संख्या तो बना ही रहा है। इसी आधार पर, वह व्यक्ति, विपरीत विचारधारा के बाद भी, उस दल में बना रहता है। मंत्री भी बनता है, और तमाम विसंगतियों के बाद भी वही उसी दल के चुनाव चिह्न पर चुनाव भी लड़ता है। यहां, कोई विचारधारा नहीं बल्कि, दोनों को एक दूसरे की राजनीतिक ज़रूरत, स्वार्थ आदि अन्य कारक तत्व नज़दीक लाते हैं और एक दूसरे से बांधे रखते हैं।
© विजय शंकर सिंह

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