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नज़रिया – क्या यह बीमार होते हुये समाज का लक्षण नहीं है

by Vijay Shanker Singh · April 11, 2019

उनका इरादा साफ है। जब तक पाकिस्तान रहेगा तब तक वे देश मे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार आदि जनहित के मुद्दों पर कुछ नहीं करेंगे। न तो वे कोई बात करेंगे और न उनके समर्थक इन मुद्दों पर कोई सवाल उठाएंगे। विरोधी उठाते रहें सवाल और पूछते रहें जो भी मन हो, उससे उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता है। ऐसी मानसिकता उनकी बन गयी है। वे तो पहले पाकिस्तान को खत्म करने के लिये अपने लोगो मे इतना ज़हर फैला देंगे कि वे सोते जागते पाकिस्तान की अस्तित्वहीनता की ही पिनक में रहेंगे। यह चीन में कभी हुये अफीम युद्ध की तरह होगा।
कोई भी विचार जो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार की तरफ बढ़ रहा होगा उसे हतोत्साहित किया जाएगा । ऐसे विचारों को हतोत्साहित करने का एक आसान उपाय है उन्हें गद्दार कह दिया जाय, देशद्रोही कह दिया जाय, जो जीवन से जुड़े मुद्दों पर सवाल उठाते हैं। देशप्रेम एक ऐसा भावुक मुद्दा है कि मज़बूत इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति भी एक मिनट के लिये झटका खा जाता है। वे हर बार, हर बात को देशप्रेम और देशभक्ति की ओर ले जाकर खड़ा कर देंगे। पर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार पर एक शब्द नहीं बोलेंगे। यह अदा मुद्दे भटकाने की है। यह मुद्दाबदल योजना है। इन मुद्दों पर कभी सरकार को उनके ही वादे याद दिलाइये, उनके ही वादों की फेहरिस्त उनके ही संकल्पपत्र 2014 से ढूंढ कर उन्हें ही दिखाइए, तो उस पर वेे कुछ भी नहीं बोलेंगे। उनकी बात पाकिस्तान से शुरू हो  हिन्दू मुसलमान तक ही जाएगी।
ठीक ऐसा ही देशभक्ति का वायरस हिटलर ने भी कभी जर्मनी में फैलाया था। पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी के हार जाने और बर्बाद हो जाने के बाद उसने देशप्रेम और देशभक्ति का राग अलापा था। वह जर्मनी को उसका सम्मान वापस दिलाना चाहता था। पर यह सम्मान युद्ध करके, उन्माद फैला कर दिलाना चाहता था न कि जर्मनी को आर्थिक और बौद्धिक रूप से समृद्ध कर के। हिटलर बहुत अच्छा वक्ता था। बीसवी सदी के श्रेष्ठ  वक्ताओं में उसका नाम आता है। वह जब बोलता था तो लोग उसके दीवाने हो जाते थे। यह दीवानगी इस हद तक तारी थी कि जर्मनी का प्रबुद्ध समुदाय हैरत में था। वहां भी बेरोज़गार युवाओं की फौज थी। रोजी, रोटी शिक्षा,स्वास्थ्य की जरूरतें उनकी भी थीं। पर हिटलर यह सब दे नहीं सकता था। वह एक उन्मादी वक्ता था, पर सारगर्भित रचनात्मक नेतृत्व का उसके व्यक्तित्व में पूर्ण अभाव था । ऐसे युवाओं को उसने एक नया सिद्धांत दिया नस्लीय श्रेष्ठतावाद का । श्रेष्ठतावाद का यह सिद्धांत पूरे जर्मनी में फैल गया और वहां के यहूदियों पर उसका कहर टूट पड़ा। गैस चैम्बर, यातना गृह आदि शब्द सभ्य होते समाज मे एक नासूर की तरह उभर आये थे । यहूदी बर्बाद तो हुये ही पर जर्मनी भी हिटलर की विभाजनकारी आग से बच न सका। अंततः छिन्न भिन्न हो गया।
ज़हर से भरे जर्मन युवा जिन्हें रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य चाहिये था, बेहतर भविष्य चाहिये था, वे गोएबेल के प्रोपेगैंडा और हिटलर के वाक चातुर्य और नाटकीयता भरे संवाद अदायगी पर रीझ कर देश को बचाने निकल पड़े। जैसा हिटलर वैसा ही उसका पड़ोसी मुसोलिनी, दोनों ने ही हिंसा, उन्माद, श्रेष्ठतावाद की जो धुरी बनाई वह 1939 से 1945 तक हुये द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी और इटली दोनों को बर्बाद कर गयी। मुसोलिनी बिजली के लैम्पपोस्ट से लटका दिया गया और हिटलर ने मेज के नीचे छुप कर आत्महत्या कर ली। युद्ध और श्रेष्ठतावाद के उन्माद का एक अंत यह भी होता है।
देश की रक्षा आवश्यक है। देश की संप्रभुता ,एकता और अखंडता भी बनी रहे, यह भी आवश्यक है। पर इन सबके लिये युवाओं को रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य मिले यह सबसे अधिक ज़रूरी है। विपन्नता की दहलीज पर खड़ा देश अपनी रक्षा कर ही नहीँ सकता है। पर सरकार और भाजपा के लोग रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य के इस मौलिक मुद्दे पर कभी भी कोई बात नहीं करते हैं। वे अपने उन्ही वादों पर भी बात नहीं करते जो उन्होंने 2014 में जनता से किया था। अपने उन्ही कालजयी मास्टरस्ट्रोक कारनामों, नोटबंदी, जीएसटी आदि पर बात नहीं करते हैं, जिनका कभी खुल कर नाम लिया जाता था। बात होती है तो पाकिस्तान की, बात होती है तो हिन्दू और मुसलमान की। समाज और जनता को डरा कर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता है भले ही जब तक जनता अफीम की पिनक में हो सत्ता पर काबिज रह लिया जाय।
सरकार के समर्थक शायद ही कभी सरकार या सत्तारूढ़ दल से यह सवाल पूछने का साहस कर पाएं कि स्मार्ट सिटी, 2 करोड़ प्रतिवर्ष रोज़गार, स्टार्ट अप, स्टैंड अप, आदि आदि खूबसूरत योजनाओं का क्या हुआ ?.कहीं कहीं उनमें से कुछ  जब इन असहज करते हुए सवालों को पूछते हैं तो उन्हें इनका जवाब नहीं मिलता है । उन्हें फ़्यूहरर की तर्ज़ का एक नारा थमा दिया गया है कि वे उस झुनझुने को बजाते रहें। उसी की ध्वनि में आत्ममुग्ध से पड़े रहें।  बढ़ती बेरोजगारी सरकार के लिये एक बड़ा ख़तरा बन सकती है। सरकार इससे अनभिज्ञ भी नहीं है। ऐसे खतरे से निपटने के लिये राष्ट्रवाद का जाल फैलाया जा रहा है ताकि देश खतरे में हैं सदैव यही दिखे। पर अंधराष्ट्रवाद अंततः रपराष्ट्रभंजक ही बनता है।
दुनिया का कोई भी देश जब तक अपनी आर्थिक स्थिति और सामाजिक एकता नहीं सुदृढ़ रखता, तब तक सुरक्षित नहीं रह सकता है। बेरोज़गार युवाओं की बढ़ती फौज, एक दूसरे से अनायास सशंकित रहता हुआ समाज, हर वक़्त उन्माद के पिनक में पड़ा हुआ मस्तिष्क, सदैव दुश्मनी की कल्पना में दरवाजे की हर आहट पर गाली दे कर चौंक जाने वाला व्यक्ति किसी भी स्वस्थ समाज की पहचान नहीं है। यह बीमार होते हुए समाज के लक्षण हैं।

© विजय शंकर सिंह

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