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मूलभूत समस्यायों से झूझता भारत

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हमारा देश भारत. जिस पर हमें अगाध गर्व है, कुछ मूलभूत सुविधाओं के लिए झूझ रहा है. जनसँख्या की दृष्टि से देखें तो विश्व में प्रत्येक छठा नागरिक भारतीय है. और विश्व में दूसरा स्थान है. लेकिन मूलभूत सुविधाओं जैसे-रोटी, कपडा, मकान और दिल्ली जैसे महानगरों में श्वास लेने के लिए स्वच्छ  हवा और स्वच्छ पानी के संसाधनों की स्थिति दुरूह हो गयी है.
दूसरा पहलु ये भी है कि विश्व के अधिकतम जनसंख्या के कगार पर खड़े भारत के लिए संसाधनों का धारणीय(sustenable) उपयोग करना एक विशाल पहाड़ पर चढ़ने जितना ही चुनौती भरा है. जहां एकतरफ देश के एक क्षेत्र में आधार नहीं होने की वजह से खाना नहीं मिलता और तडपते हुए मौत हो जाती है. वहीं दिल्ली में प्रदूषण पर देश की सर्वोच्च अदालत को प्रतिबंध जैसा कड़ा कदम उठाना पड़ रहा है.
दोनों ही स्थिति गंभीर है, और गंभीरता से ही काम करना पड़ेगा.  महानगरों मे प्रदुषित हवा की वजह से जीना मुश्किल सा हो गया है, और दिल्ली में तो और ज्यादा मुश्किल. लांसेट(lancet) के 2015 के  अध्ययन से पता चलता है कि प्रदूषण से प्रतिवर्ष भारत में 25 लाख मौत होती है. जो अन्य महामारियों से होने वाली मौतों से भी कहीं ज्यादा है.
केंद्र की सरकार हो या दिल्ली की बस धृतराष्ट्र बन गयी है. और आम जनता क्या करें. वैसे आम जनता भी दिल्ली की इतनी जागरूक है कि पटाखों की बिक्री पर बैन होने के बावजूद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही थी. शायद आम जनता भी प्रदूषण को लेकर इतनी जागरूक नहीं है, जितना कि ये खतरनाक है. और इसी का फायदा सरकारों को मिल जाता है. और प्रदूषण कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता.
प्रदूषण अनेक बिमारियों की जड़ है, जैसे-फेफड़ों से सम्बन्धित बिमारियां (टीबी,दमा, न्यूमोनीया  और लंग्स कैंसर). लंग्स कैंसर के मरीज़ तो लगातार बढ़ ही रहे है.  कहने का अर्थ सर्दियों में तो दिल्ली दिल वालों की न होकर बीमारी होने वालों की हो जाती है.

प्रदूषण को लेकर क्या कदम उठाने चाहिए

दीपावली पर पटाखों की बीक्री पर रोक से सुप्रीम कोर्ट ने चेताया है कि अब वक्त कड़े कदम उठाने का आ गया है, दिल्ली अब और गैस चैम्बर बनी नहीं रह सकती. अब बारी न्यायपालिका की नहीं विधायिका की है. विधायिका को वोटबैंक की परवाह करे बिना अब सख्त फैसलें लेने होंगे जैसे कि पेट्रोल-डीज़ल की व्हीकल्स पर नियंत्रण. सीएनजी की गाड़ियों को बढ़ावा. पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए जनता को प्रोत्साहित करना. एक अन्य उपाय जो आईएस अधिकारी अशोक खेमका ने सुझाया था कि जिनके पास फोर व्हीलर व्हीकल है उनपर अतिरिक्त सेस लगाया जाये.
और अन्य स्थितियां भी कम नाजुक नहीं है  जैसे जीएचआइ में हमारा119 देशों मे 100 वाँ स्थान है. शिक्षा और स्वास्थ्य की हालात भी नाजुक है.  सरकारें बस पीआर के सहारे चल रही है. विद्यालय और अस्पताल की संख्या कम है और जितने है उनमें भी स्टाफ, शिक्षक और उपकरणों की भारी कमी है. किसान फसल मूल्य और कर्ज से परेशान है. किसानों की आत्महत्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है. खेती करना अब घाटे का सौदा बन गयी है. किसान नहीं चाहता कि उनकी आने वाली पीढियां खेती करें. केवल कुछ कर्जमाफ़ी से उनको राहत नहीं मिलने वाली. उनको फसल मूल्य अच्छा देना पड़ेगा. तभी किसान महंगाई के दौर में सर्वाइव कर पायेगा.
बेरोज़गारी की अलग अपनी समस्या है. स्किल-विकास के नाम पर केवल नेताओं का विकास हो रहा है. रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाने ही होंगे. देश में डिग्रीधारियों का अम्बार लगा हुआ है.
 

सरकारें बदलती रहती है, नारे बदलते है उनकी योजनाओं के नाम अपने प्रिय के नाम पर बदल जाते है. नहीं बदलती तो आम जनता की स्थिति, वो पिसती रहती है, और सरकार विकास होनें का दावा करती रहती है.