Share

चुनाव के आईने में गुजरात का गौरवशाली अतीत

by Amaresh Mishra · November 28, 2017

लोकतंत्र के भविष्य के लिए गुजरात चुनाव अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। पर गुजरात के राजनीतिक व्यवहार को समझने के लिए उसकी सामाजिक-वर्ग संरचनाओं को एक ऐतिहासिक संदर्भ में देखना महत्वपूर्ण है।
उथल-पुथल के दौर ही में सामाजिक-वर्ग संरचनाओं उभर कर सामने आती हैं। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (BEIC) के खिलाफ 1857-58 के दौरान गुजरात में भारी विद्रोह हुआ था। इस विद्रोह के क्षेत्रों में, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सामाजिक शक्तियों द्वारा बनाये गए गठबंधन, आज गुजरात में चलने वाले मंथन के साथ सह-संबंधित हैं।

बैकग्राऊंड

गुजरात में 1818 में मराठों की आख़िरी हार के बाद BEIC का शासन शुरू हुआ। लेकिन गुजरात के मराठा शासक गायकवाड़ सन 1800 के दशक के शुरूआती दौर में ही ब्रिटिश सरकार के साथ आ गए थे।
मुगल से मराठा, यानी प्री-ब्रिटिश, काल तक, मोटे तौर पर, ‘दस’ ताक़तें गुजरात पर हावी रहीं: सौराष्ट्र में कुनबी-पटेल-पाटीदार किसान, स्वदेशी ब्राह्मण, और ‘वघेर’ नाविक जातियां; उत्तर गुजरात में क्षत्रिय वाघेला एवं ठाकोर (जो वर्तमान OBC श्रेणी में आते हैं); मध्य और दक्षिण गुजरात मे भील आदिवासी और कोली जाति; पूरे गुजरात में फैले स्वदेशी बनिया (झावेरी, श्रॉफ, देसाई का एक हिस्सा); मुस्लिम मेमन; ‘विलायती’ कहे जाने वाले अरब-अफगान लड़ाकू-जाँबाज; मिस्र-अरब पृष्ठभूमि के ‘बाबी’ (अभिनेत्री परवीन बाबी के पूर्वज)। इसके अलावा सिद्दी (मिस्र मूल के नाविक), बलूची और सिंधी मकरानी योद्धा (हिंदू और मुस्लिम दोनों), चरण, बोहरा मुस्लिम, सूरत पारसी भी प्रभावशाली थे।

ब्रिटिश सोशल इंजीनियरिंग

‘फूट डालो राज करो’ निति के तहत, अंग्रेजों ने सौराष्ट्र में कुनबी-पटेल-पाटीदार और वघेर्स  पर राजपूत (जडेजा-गोहिल आदि) ‘कुलीन’ वर्ग के राज्य स्थापित किये;  उत्तर गुजरात में वाघेला और ठाकोर पर भी राजपूत थोपे; और मध्य-दक्षिण गुजरात में राजपूत मिश्रित समूह व चुनिन्दा पाटीदारों को कोली और भीलों के ऊपर बैठाया।
स्वदेशी बनियों और व्यापारियों की जगह बाहरी बनियों को ज़्यादा महत्त्व दिया गया। योद्धा समुदायों को नए  राज्यों में रोजगार की तलाश करने के लिए मजबूर किया गया।

गायकवाड़ के तहत बड़ौदा  सबसे बड़ा राज्य घोषित किया गया।

गुजरात में अन्ग्रेज़ों द्वारा बनाये राज्यों में 100 से अधिक सिर्फ काठियावाड़ (सौराष्ट्र) एजेंसी में थे। गुजरात में अंग्रेजों द्वारा बनाई गई कुल चार प्रशासनिक एजेंसियों में से तीन अन्य (काठियावाड़-सौराष्ट्र के अलावा) मनीकांठा, रीवाकांठा और सूरत थीं।
मुगलों और मराठों के द्वारा शासित गुजरात में अद्वितीय समृद्धि देखी गई। वास्तव में, विद्वानों ने गुजरात को एक शुरुआती एशियाई बुर्जुआ समाज कहा है,जो यदि आगे ‘बढ़ने’ की ‘अनुमति’ पाता, तो औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हो सकती थी।

गुजरात में ब्रिटिश सामंतवाद

लेकिन अंग्रेज़ों ने फिर से सामंतवाद लागू कर दिया। व्यापार और औद्योगिक क्षेत्र में आई गुजरात की समृद्धि अन्ग्रेज़ों को फूटी आंख नही सुहाई। अन्ग्रेज़ योरोप में औद्योगिक क्रान्ति चाहते थे। भारत में कैसे होने देते?

  • तो गुजरात में अन्ग्रेज़ों ने निजी पूंजी को व्यापार और किसान उत्पादिक्ता से हटा कर ज़मीन की खरीद-फरोख्त और महाजनी-सूदखोरी में लगवाया। इसिलिए ढेर सारे प्रिंसली स्टेट बनाये गये। और व्यापार-उद्योग विरोधी, सामंतवाद को पुनर्जीवित किया गया।
  • अंग्रेज़ो द्वारा 1818 में शुरू की गई सोशल इंजीनियरिंग से गुजरात को जो प्रतिक्रियावादी अघात पहुंचा, उसका असर आज भी देखा जा सकता है।
  • यही कारण है कि गुजरात में 1857 की उथल-पुथल एक निश्चित, सामंतवाद-विरोधी लीक पर चली। गुजरात शायद एकमात्र ऐसा स्थान था जहां बनिया जाति क्रांतिकारी भूमिका निभाती देखी गयी।

शाहजहां और औरंगजेब के शासनकाल के दौरान, गुजराती बनिये न केवल सरकार को बड़ा कर्ज देते थे; बल्कि सरकार से ऋण प्राप्त करते थे। ‘बनिया-मुगल राज्य भागीदारी’ जहाज निर्माण और अन्य निर्माण कार्यों में मुख्य थी। कई धनी जैन और वाणी व्यापारियों ने शानदार मंदिरों और भवनो की स्थापना की–वे मारवाड़ीयों की तरह कंजूस नहीं थे; मुगल अर्थव्यवस्था में मध्यस्थ-दलाल की भूमिका कम थी।

गुजरात क्रांति चक्र

19वीं सदी के मध्य में, बड़ौदा गायकवाड़ के शासक खांडेराव ब्रिटिश समर्थक थे। लेकिन बड़ौदा के चार बड़े व्यक्तित्व– भाऊ साहब पवार, भोंसले राजा, निहालचंद झावेरी और बड़ौदा में रहने वाले पाटन के मगनलाल बनिया–‘गुजरात क्रान्तिकारी सर्कल’ में शामिल थे।
खांडेराव के सौतेले भाई बापू गायकवाड़, शाहीबाग, अहमदाबाद में विराजमान थे। उन्हे चुपके से बड़ौदा के नए राजकुमार के रूप में चुन लिया गया। इस योजना के तहत पहले बड़ौदा और फिर अहमदाबाद पर हमला होना था। कई कोली, भील, मुस्लिम और यहां तक कि राजपूत प्रमुखों ने समर्थन का वचन दिया हुआ था।

अहमदाबाद का पहला उभार

मराठा और गुजरात हॉर्स के दो अनियमित कैवलरी रेजिमेंटों के साथ अहमदाबाद में 7वीं बॉम्बे नेटिव पैदल सेना की तैनाती थी। 7वीं इन्फैन्ट्री के एक तिहाई सिपाही उत्तर प्रदेश के अवध से थे। 9 जुलाई, 1857 को, 7वें के सूबेदार लोहार अहिर द्वारा एक आंदोलन शुरू किया गया। देखते ही देखते गुजरात हार्स के घुड़सवारों ने ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या कर दी। 7वीं पैदल सेना और मराठा हॉर्स ने ‘विद्रोहियों’ के खिलाफ मार्च करने से इनकार कर दिया।
सितंबर 1857 में, 7वीं इन्फैंट्री और मराठाओं ने अहमदाबाद के दूसरे उभार को अंजाम दिया।
गुजरात हॉर्स के घुड़सवारों सरखेज की तरफ बढ़े। एक छोटी योरोपियन टुकड़ी और कुछ हिन्दुस्तानी सिपाहियों के साथ,  लेफ्टिनेंट पिम ने उनका पीछा किया।अहमदाबाद-ढोलका राजमार्ग पर कैप्टन टेलर, पिम के साथ हो गए; टेलर के पास एक अनियमित कोली बल था। लेकिन पिम के घुड़सवारों ने लड़ने से इनकार कर दिया। कोलीयों ने भी अनिच्छा व्यक्त की; इसी बीच कप्तान टेलर एक ‘विद्रोही’ घुड़सवार की गोली से घायल हो गया।
इधर यह अफवाह फैल गयी की भावनगर, सौराष्ट्र के घोघा बन्दरगाह पर, जुलाई 1857 में एक बड़ी ब्रिटिश सेना उतर रही है। निहाल चंद झावेरी ने बड़ौदा छोड़ दिया; उमाता और भद्रव प्रमुखों, साथ ही खेड़ा और महाकंठ पटेलों ने उन्हें अपने-अपने स्थानों पर आने के लिए आमंत्रित किया। ब्रिटिश सेना को अहमदाबाद में प्रवेश करने से रोकने की योजना बनी।  गांवों में इस विशिष्ट उद्देश्य के लिए सैनिक भर्ती किये गये।

मगनलाल बनिया कडी तालुका में घुस गये। वहां उन्होने, 2000 पैदल और 150 घुड़सवारों की सेना तैय्यार की। यह व्यवस्था की गई कि प्रतापपुर गांव के पास माही नदी के किनारे सभी क्रांतिकारियों को इकट्ठा किया जाएगा।

गोधरा-दाहोद में उभार

6 जुलाई 1857 को दिल्ली में क्रान्ति का नेतृत्व कर रहे मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फर से जुड़े लोगों ने दाहोद और गोधरा में BEIC विरोधी बैनर उठाया। दाहोद के स्थानीय जमींदार तिल्यादार खान ने हथीयारबंद  दस्ते तैयार किये और 6 जुलाई को दाहोद शहर पर कब्ज़ा कर लिया। BEIC मामलतदार और शहर के अन्य अधिकारी किले में क़ैद कर लिये गये। 8 जुलाई को ब्रिटिश कप्तान बकले–चार तोपें, तीन सौ पैदल सेना और अनियमित कैवलरी–लेकर बड़ौदा से निकलकर दाहोद के लिये चला।

  • हमीर खान के नेतृत्व में, बहादुर शाह के समर्थकों ने गोधरा के देवगढ़ बारिया के पास बकले पर हमला किया। इससे पहले तिल्यादार खान ने भीलों के बीच दूत भेजे थे; भीलों के एक मजबूत दल ने हमीर खान और गोधरा के लड़ाकों को मजबूती प्रदान की।
  • देवगढ़ बारिया की लड़ाई 48 घंटे से ज्यादा तक चली; मुसलमानों और भीलों ने बकले की सेना को हिट एंड रन रणनीति से परेशान कर दिया। बकले की एक चौथाई सेना मार दी गयी।
  • बकले के दोहाद मार्च में देरी हुई। जब वो 11 जुलाई को शहर पहुंचा तो उसने पाया कि दीवारों के पीछे, घरों में और गलियों में तिल्यादार खान के लोग छुपे हुए हैं।यूरोपीय फौजियों के बल पर बकले को इंच-दर-इंच लड़ाई लड़नी पड़ी। तिल्यादार खान का गोला बारूद खर्च हो गया। लेकिन 15 जुलाई को हमीर खान की सेना ने ब्रिटिश टुकड़ी पर हमला कर दिया। जिसके बाद बकले पीछे हट गया और शहर के आस पास घूमता रहा।
  • एक और कठोर लड़ाई के बाद, तिल्यादार और हमीर खान दोहाद और गोधरा से पीछे हट लिये। बकले ने पूरे शहर को आग के  हवाले कर दिया। हज़ारों नागरिक, पुरुष, महिला और बच्चे जल के मर गए। क्रूर बकले ने पाया कि दाहोद-गोधरा में गांव के लोग भी बहादुर शाह समर्थक हैं।

लुनावडा और पंचमहल

15 जुलाई को, खेड़ा के दाकोर के ज़मींदार सूरजमल ने लुनावडा पर हमला किया। डाकोर को बहादुर शाह ज़फर का क्षेत्र घोषित किया। सूरजमल ने लुनावडा की जनता को अपने ब्रिटिश-समर्थक राजपूत राजकुमार के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरित किया।
मध्य गुजरात की सामाजिक व्यवस्था में ‘चारण’ समुदाय को विशेषाधिकार प्राप्त थे। वो राजकुमारो और जनता व राजकुमारों और अंग्रेजों के बीच बिचौलिए की भूमिका निभाते थे। वो अंग्रेजों के वफादारों में से एक थे, तथा ब्रिटिश सरकार के नेटवर्क का हिस्सा थे।

  • कनदास चारणो के पंचमहल प्रमुख थे। लुनावाडा पर सूरजमल के हमले के बाद, अन्ग्रेज़ अफसर बकले की नज़र चरणो के समर्थन के लिए कनदास की ओर थी।
  • पर कनदास ने बहादुर शाह ज़फर का बैनर उठाया। पंचमहल  के कोली प्रमुखों और सेवानिवृत्त सिपाहियों को इकट्ठा करके, वे सूरजमल की मदद के लिए आए। जवाब में, लेफ्टिनेंट अल्बान ने कनदास के  के शहर पाला को ढहा दिया।

आनंद और मध्य गुजरात

तब तक आंदोलन आनंद में फैल गया था। यह पटेल-कुनबी-किसान इलाक़ा था। अंग्रेज़ों को आशा थी कि वे पटेलों को भील, कोली और मुस्लिम मूल के पूर्व जिला और राजस्व अधिकारी, जो नायक और सिबंडी के नाम से जाने जाते थे, के खिलाफ उपयोग कर पायेंगे।

लेकिन ब्रिटिश सांप्रदायिक कार्ड असफल रहा।

रूपा और केवल नायक भीलों के नेता के रूप में उभरे। बड़ौदा सर्किल के भाऊ साहब पवार के ये दोनो सम्पर्क में थे। नारुकोत और जंबुघोड़ा में ‘अशांति’ के बाद BEIC के अधिकारियों ने भाऊ साहब पवार के दूत गनपत राव को गिरफ्तार कर लिया। आंदोलन अपनी गति खोने वाला ही था कि अरब/पठान विलायतियों ने नारुकोत आंदोलन को पुनर्जीवित करने के लिए चंपानेर पर कब्ज़ा कर लिया।
खानपुर के जिवाभाई ठाकोर और आनंद में गड़बड़दास पटेल ने किसानों को जगाया। गड़बड़दास पटेल की मिलिशिया ने आनंद को एक स्वतंत्र क्षेत्र घोषित किया। जल्दबाज़ी में भेजी गई ब्रिटिश सेना लोटिया भगोल से आगे नहीं बढ़ पाई। मालाजी जोशी, बापूजी पटेल और कृष्ण राम दवे से जुड़े, गड़बड़दास पटेल ने पूरे आनंद जिले को ब्रिटिश पहुंच से बाहर कर दिया।

कोली, भील और माहिकांठा का उभार

माहिकांठा क्षेत्र में 140 से अधिक प्रमुख अन्ग्रेज़ों द्वारा थोपे गये अपने अधिपतियों के खिलाफ असंतोष से ग्रस्त थे। इदर  यहाँ का सबसे बड़ा रजवाड़ा था। मुस्लिम-विलायती और कोली सिपाहियों के बल पर इदर राजा की सत्ता टिकी हुई थी। जब चंदूप में कोली विद्रोह हुआ तो इदर की सेना में उथल-पुथल मच गयी। बड़ोदा से खंडे राव द्वारा मदद के लिए भेजी गयी सेना खदेड़ दी गयी। जल्द ही, डबारा कोली भी क्रांतिकारियों में शामिल हो गये।

चंदूप आंदोलन ने खेरलू, वडनगर और विजापुर के कोलियों को भी प्रेरित किया। लोढ़ारा कोलीयों ने भी सामंती शासन को खत्म करने का निर्णय लिया। विजापुर में, हाथी सिंह और अन्य ‘सरकारी’ अधिकारी सीधे क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में थे; भील और कोली दोनों ने बहादुर शाह ज़फर के पक्ष में घोषणा की। प्रत्येक गांव में हर दिन हजारों लोग इकट्ठा हो रहे थे।

मंडेट्टी के ठाकुर ने राजपूत महाकंठा समुदाय का नेतृत्व किया। विलायतियों से अलग, सिंधी मकरानी योद्धाओं ने अपनी सेना बनायी। मंडेट्टी प्रमुख खुद को वंश और प्रतिष्ठा में इदर राजपूत राजा से श्रेष्ठ मानता था। उसका कहना था कि इदर की अधीनता स्वीकार करने की बजाय कोली, भील और मुसलमानों के साथ बैठने, खाने और लड़ने को तैयार है।

रीवाकाठां और दक्षिणी गुजरात

  1. ये इलाके बम्बई, BEIC के केंद्र बिंदु, के नज़दीक थे। 12 जून 1857 को बहादुर शाह ज़फ़र के तीन हज़ार रक्षक योद्धा वघारा और अमोद पर इकट्ठा हुए। उनकी मंशा ब्रोअच (Broach) पर अक्रमण करने की थी।
  2. पांच हज़ार कोली,भील, मुस्लिम, जम्बूसार में इकट्ठा हुए। जिसमें एक टुकड़ी को बेगम बारी (मैजिस्ट्रेट के बंगले) पर हमला करना था व दूसरी को जेल और ख़ज़ाने पर। राजपीपला दस्ते को अलग रखा गया था।
  3. राजपीपला की स्थिति लुनावडा से मिलती-जुलती थी। शासक अंग्रेजों के साथ था पर उसकी सेना और लोगों की हमदर्दी ज़फर के साथ थी। नांदोड़ के सैयद अहमद मुराद अली मकरानी, सिंधी व अरब योद्धाओं के केंद्र बने।
  4. जुलाई 1857 तक सून्ठ, रीवाकंठा के राजा, अरब, काबुली, मकरानी और सिंधीयों के बारे में सकंशित था।

ब्रिटिश राज को लिखे पत्र में उसने लिखा:

“सिपाही खुले तौर पर स्वीकार रहे कि वह ब्रिटिश राज को लूटते हुए दिल्ली की तरफ़ कूच करेंगे। ऐसी अफवाहें आने लगी हैं कि ब्रिटिश राज समाप्त हो चुका है। वह शक्तिहीन बन गया है।”

  • अगस्त 1857 तक सून्ठ शासक भय से कांप रहा था। जमादार मुस्तफा खां के नेतृत्व में उसकी सेना ने विद्रोह किया, जिसमें भील, कोली व मुस्लिमों ने भी भाग लिया।
  • सूरत में BEIC अधिकारियों ने दाईकर बाबू को गिरफ्तार किया। दाईकर बाबू सूरत के एक प्रतिष्ठित बंगाली परिवार से थे। बाहर आने के बाद, दाईकर बाबू उत्तरी गुजरात में मगनलाल बनिया से जा कर मिल गये। सेठ द्वारकादा श्रोफ्फ, जेठा माधवजी ने मगनलाल और उनकी टीम को तरंगा पहाड़ियों तक पहुंचाने में सहायता की।

उत्तरी गुजरात

मेहसाना मगनलाल के गृह क्षेत्र पाटन तक फैला हुआ था। उत्तरी गुजरात के वैष्णव बनिये धन कमाने में समर्थ थें। द्वारका दास श्रोफ्फ साहूकरों के मुखिया थे व जेठा बनियों के संघ का हिस्सा था।
खेरालू पहुंचने पर मगनलाल अब एक कठिन एंव क्रांतिकारी जीवन बिता रहे थे। मनसा, सातल्‍सना, भालू्‍सना, हदोल पलजी और वारसोडा आन्दोलन के मुख्य केन्द्र बन कर उभरने लगे। सभी स्थानो पर शासक वर्ग बहादुर शाह के पक्ष व विपक्ष में बटा हुआ था। मेहसाना में मगनलाल की मदद साधुओं ने की। द्वारिका के शंकराचार्य बहादुर शाह ज़फर के पक्ष में बयान दे चुके थे।

श्री बोरिया स्वामी ने विजापुर और स्वामी रामगीर ने पाटन में अन्ग्रेज़-विरोधी ‘धर्मयुद्ध’ का एलान किया। पाटन में वाघेला छत्रियों ने कई लड़ाकू दल बनाये। एक दल खेरालू की तरफ बढ़ा। वहीं दूसरे दल ने सौराष्ट्र की राह पकड़ी।

इस तरह ये देखा जा सकता है कि गुजरात के अलग-अलग इलाक़ों में किस तरह के गठबंधन प्रगतिशील ताकते आने वाले चुनाव में स्थापित कर सकतीं हैं।
(अगला भाग सौराष्ट्र की घटनाएँ सामने लायेगा)

Sources:

  1. ‘The Gujaratis: The People, their history, and Culture’, Krishan Mohan Lal Jhaveri, Vol 3, Cosmo, New Delhi, 2003
  2. ‘Gujarat in 1857’, Ramanlal Kakalbhai Dharaiya, 1970, University of Gujarat
  3. ‘Rashtrano Swatantrata Sangram Ane Gujarat’, Dr. Shantilal Desai
  4. ‘1857 Kranti ma Gujarat’, Ashutosh Bhat
  5. Surat Gazetteer, 1880, Mehsana Gazetteer, 1882, Ahmedabad Gazetteer, 1875

Browse

You may also like