Share

नज़रिया – फ़र्ज़ी मुठभेड़ें सिर्फ और सिर्फ एक हत्या है

by Vijay Shanker Singh · September 29, 2018

एनकाउंटर स्पेशलिस्ट, यह शब्द किसने और कहां ईजाद किया है, यह मैं नहीं बता पाऊंगा। पर पुलिस के कुछ मुठभेड़ों की वास्तविकता जानने के बाद, यह शब्द हत्या का अपराध करने की मानसिकता का पर्याय बन गया है। अगर सभी मुठभेड़ों की जांच सीआईडी से हो जाय तो बहुत कम पुलिस मुठभेड़ें कानूनन और सत्य साबित होंगी अन्यथा अधिकतर मुठभेड़ें हत्या में तब्दील हों जाएंगी और जो भी पुलिस कर्मी इनमें लिप्त होंगे वे जेल में हत्या के अपराध में या तो सज़ा काट रहे होंगे या अदालतों में बहैसियत मुल्ज़िम ट्रायल झेल रहे होंगे ।
जब पुलिस के एसआई, इंस्पेक्टर ऐसी मुठभेड़ों में जेल में होते हैं तो उनकी पीठ थपथपाने वाले अफसर और उनकी विरुदावली गाने वाले चौराहे के अड्डेबाज़ नेता, इनमें से एक भी मदद करने सामने नहीं आता है। पुलिस का काम हत्या रोकना है, हत्यारे को पकड़ना है, सुबूत इकट्ठा कर अदालत में देना है, न कि फ़र्ज़ी कहानी गढ़ कर के किसी को गोली मार देना है।
लोग कहेंगे अदालत अपराधियो को छोड़ देती है। हत्यारों और अपराधियों को लंबे समय तक सज़ा नहीं मिलती है। उनकी जमानतें हो जाती है। वे सज़ायाबी का प्रतिशत भी दिखाएंगे, और सारा दारोमदार पुलिस के ऊपर रख देंगे। पर जब पुलिस के अधीनस्थ अधिकारी मुठभेड़ सम्बंधी हत्या के किसी मामले में फंस कर, अपने जीपी फंड का पैसा वकीलों को दे कर, बदहवास हुये अदालतों का चक्कर काटते हैं तो यही लोग पैंतरा बदल कर रास्ता बदल देते हैं। यह सारा दारोमदार धरा का धरा रह जाता है। पुलिस का काम कानून को लागू करना है। और कानून में ही यह बात भी स्पष्ट है कि कौन सा कानून कैसे लागू किया जाएगा।
सरकार और अफसरों की एक अघोषित नीति बनती जा रही है कि वे अधीनस्थों को मुठभेड़ों के लिये उकसायें। मैं यहां प्रोत्साहन शब्द जान बूझकर नहीं लिख रहा हूँ। क्योंकि जिस तरह से राजनेताओं से लेकर बड़े अफसरों तक मुठभेड़ें कर के अपना खोखला शौर्य दिखाने की होड़ में दौड़ते हैं, वह कभी कभी लगता है कि, विभाग, सरकार, समाज और कानून सबके लिये घातक है।

~ विजय शंकर सिंह, रिटायर्ड आईपीएस

Browse

You may also like