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धर्मनिपेक्षता पर पंडित नेहरू के क्या विचार थे ?

by Pankaj Chaturvedi · November 14, 2020

‘‘हम भारत में धर्मनिरपेक्ष राज की बात करते हैं। लेकिन संभवतः हिंदी में ‘सेक्यूलर’ के लिए कोई अच्छा शब्द तलाशना भी मुश्किल है। कुछ लोग समझते हैं कि धर्मरिपेक्ष का मतलब कोई धर्मविरुद्ध बात है। यह बिल्कुल भी सही नहीं है। इसका मतलब तो यह है कि एक ऐसा राज जो हर तरह की आस्था का बराबर आदर करता हो और सबको समान अवसर देता हो; देश के तौर पर वह खुद को किसी खास आस्था या धर्म से न जुड़ने दे। ऐसा होने पर ही राजधर्म बनता है।’’–पंडित जवाहर लाल नेहरु (रघुनाथ सिंह की पुस्तक ‘धर्मनिरपेक्ष राज’ की भूमिका में)

पश्चिमी मॉडल में धर्मनिरपेक्षता से आशय ऐसी व्यवस्था से है जहाँ धर्म और राज्यों का एक-दूसरे के मामले मे हस्तक्षेप न हो, व्यक्ति और उसके अधिकारों को केंद्रीय महत्व दिया जाए। वहीं इसके विपरीत भारत में प्राचीन काल से ही विभिन्न विचारधाराओं को स्थान दिया जाता रहा है। यहाँ धर्म को जिंदगी का एक तरीका, आचरण संहिता तथा व्यक्ति की सामाजिक पहचान माना जाता रहा है।

इस प्रकार भारतीय संदर्भ में धर्मनिपेक्षता का मतलब समाज में विभिन्न धार्मिक पंथों एवं मतों का सहअस्तित्त्व, मूल्यों को बनाए रखने, सभी पंथों का विकास, और समृद्ध करने की स्वतंत्रता तथा साथ-ही-साथ सभी धर्मों के प्रति एकसमान आदर तथा सहिष्णुता विकसित करना रहा है।

पंडित जवाहर लाल नेहरू ऐसा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र चाहते थे जो ‘सभी धर्मों की हिफाजत करे अन्य धर्मों की कीमत पर किसी एक धर्म की तरफदारी न करे और खुद किसी धर्म को राज्यधर्म के तौर पर स्वीकार न करे। नेहरु भारतीय धर्मनिरपेक्षता के दार्शनिक थे। नेहरु स्वयं किसी धर्म का अनुसरण नहीं करते थे। स्मरणीय हो कि ईश्वर में उनका विश्वास नहीं था, लेकिन उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म के प्रति विद्वेष नहीं था। इस अर्थ में नेहरु तुर्की के अतातुर्क से काफी भिन्न थे। साथ ही वे धर्म और राज्य के बीच पूर्ण संबंध विच्छेद के पक्ष में भी नहीं थे। उनके विचार के अनुसार, समाज में सुधार के लिए धर्मनिरपेक्ष राज्यसत्ता धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकती है।

अयोध्या में जबरिया मूर्ति रखने के बाद नेहरु जी ने के जी मश्रुवाला को पात्र में लिखा –

”मैं देखता हूं कि जो लोग कभी कांग्रेस के स्तंभ हुआ करते थे, आज सांप्रदायिकता ने उनके दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया है. यह एक किस्म का लकवा है, जिसमें मरीज को पता तक नहीं चलता कि वह लकवाग्रस्त है. मस्जिद और मंदिर के मामले में जो कुछ भी अयोध्या में हुआ, वह बहुत बुरा है. लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि यह सब चीजें हुईं और हमारे अपने लोगों की मंजूरी से हुईं और वे लगातार यह काम कर रहे हैं.” जवाहरलाल नेहरू, 17 अप्रैल 1950

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