Share

व्यक्तित्व: “मुक्तिबोध”- इस कालजयी कवि को नकारने का आप एक भी ठोस कारण नहीं ला पाएंगे

by Deeba Niyazi · November 13, 2020

तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है, कि जो तुम्हारे लिए विष है मेरे लिए अन्न है। माना जाता है कि असल रचनाकार वो होता है जो दुनिया से कूच कर जाने के बाद अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों के दिल और दिमाग मे जगह बना ले, हिंदी के ऐसे कालजयी, क्रांतिकारी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की आज 103 वीं जयंती है। मुक्तिबोध अपने जीवनकाल में सँघर्ष करते, समाज-जीवन और आत्मसंघर्ष के द्वंद से गुज़रते उपेक्षित और छटपटाये रहे पर उनके जीवन के बाद उनकी रचनाएं और उनकी शैली वो मील का पत्थर साबित हुईं कि हिंदी के रचनाकार मुक्तिबोध की तरह लिखने, मुक्तिबोध हो जाने को आतुर रहे।

मुक्तिबोध का जीवन “दुख ही जीवन की कथा रही” की तरह रहा पर मज़ेदार यह था कि इन तमाम संघर्षों, दुखो को झेलते मुक्तिबोध टूटे नहीं, थके नहीं बल्कि छटपटाते रहे और बाहरी और भीतरी सँघर्ष से गुज़रते -टकराते हुए यह छटपटाहट उनकी रचनाओं में अभिव्यक्ति पाने लगी, इस अभिव्यक्ति ने ऐसी सम्पूर्णता को पाया कि उसने पाठकों अंदर तक झकझोरा।

अंधेरे की एक ऐसी दुनिया से साक्षात्कार करवाया जहां तक पहले कोई इतना गहरा नहीं उतरा था। मुक्तिबोध खुद मानते थे कि छोटी कविताएं वो लिख नहीं पाते हैं, छोटी कविताएं छोटी न होकर अधूरी होती हैं। आख़िर किस अधूरेपन की तरफ़ मुक्तिबोध इशारा करते थे? शायद यह वही अधूरापन था जो ज्ञान से उपजी संवेदना और संवेदना से उपजे ज्ञान की वजह से पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं पा पाता था।

मुक्तिबोध पर बहुत लिखा गया,कई तरह से लिखा गया, अकादमिक दुनिया की जान हैं मुक्तिबोध, बौद्धिकों के ह्रदय के करीब रहे मुक्तिबोध पर यही कारण पिछले दिनों वो आलोचना का शिकार भी हुए हैं। नई आलोचना मानती है या कहें कि आरोप लगाती है कि मुक्तिबोध बेहद जटिल थे,उनकी रचनाएं आम पाठकों की समझ से बाहर हैं, वो मध्यवर्ग की अभिव्यक्ति हैं, मुक्तिबोध जन की नहीं बौद्धिकों की आवाज़ थे, उनकी रचनाएं बौद्धिक जुगाली हैं। कई ने तो यह तक माना कि फेंटेसी जैसे मुश्किल शिल्प को मुक्तिबोध ने इसलिये अपनाया क्योंकि वो सरकार पर सीधा प्रहार करने से बचना चाहते थे।

इन आरोपों ,सवालों की झड़ी के आगे मुक्तिबोध के चाहने वालों की संख्या बहुत बड़ी है । कितने भी जटिल सही पर जब मुक्तिबोध लिखते हैं कि ” अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने होंगे तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सभी” तब वो बौद्धिक जुगाली नहीं कर रहे होते हैं बल्कि सीधे तौर से समय की आवश्यकता की ओर संकेत कर क्रांति का आह्वान कर रहे होते हैं।

कितने समय पहले मुक्तिबोध समय की इस ज़रूरत को पहचान गए थे और जो ज़रूरत आज तक भी बनी हुई है वैसी की वैसी ही बेशक ख़तरे उठाये बिना अब कुछ नहीं मिलेगा। क्या मिलेगा? हालांकि तमाम तरह की आलोचनाओं और सवालों से गुजरते हुए यह कह सकते हैं कि मुक्तिबोध की यह आवाज़ कितना जन तक पहुंची या बौद्धिकों तक सिमट कर रह गयी या क्यों सिमट कर रह गयी यह शोध और बहस का विषय तो है ही और होना चाहिए पर इस कालजयी कवि को नकारने का आप एक भी ठोस कारण नहीं ला पाएंगे, इनकी रचनाओं को आप नकार नहीं पाएंगे, शिल्प के स्तर पर मुक्तिबोध ने जो गढ़ दिया है उसे तोड़ना बेहद मुश्किल है। मुक्तिबोध जैसा न कोई था न है।प्रिय कवि मुक्तिबोध को उनके जन्मदिन पर ख़ूब ख़ूब क्रांतिकारी सलाम।

दीबा – शोध छात्रा,एएमयू

Browse

You may also like