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बिहार की राजनीति में कायस्थ और मुस्लिम लीडरशिप की भूमिका, इतिहास और वर्तमान

by Md Umar Ashraf · March 21, 2019

बिहार दिवस मना रहे हैं, बिहार के बंगाल से अलग हो कर 1912 में ख़ुद-मुख़्तार राज्य बनने की ख़ुशी में. बहुत मेहनत की थी अलग राज्य बनाने में हमारे बुज़ुर्गों ने. सियासत और कूटनीत का बेहतरीन नमुना पेश करते हुए हुकमत के नज़दीक रहने वाले बंगाली भाईंयों के नाक के नीचे से बिहार को अलग करवाया था. सबसे पहले अगल बिहार राज्य की आवाज़ उठाई मुंगेर से निकलने वाले उर्दु अख़बार ‘मुर्ग़ ए बिहार’ ने.
इस अख़बार ने ही सबसे पहले “बिहार बिहारियों के लिए” का नारा दिया था. ये मांग अख़बार ने उस समय की थी जब आम तौर पर लोग इस बारे में सोंचते भी नही थे. ये मांग 1870 के बाद की गई थी. इसके बाद ये तहरीक का रूप लेती गई. फिर इस तहरीक में कूदे अंग्रेज़ी बोलने वाले कायस्थ और मुसलमान और 22 मार्च 1912 को सर अली इमाम दूरअंदेशी और डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की मेहनत के वजह कर बिहार राज्य वजूद में आया. उससे पहले महेश नारायण, मज़हरुल हक़, हसन इमाम, सच्चिदादनंद सिन्हा, अली इमाम, दीप नारायण सिंह, मुहम्मद फ़ख़्रुद्दीन, राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों ने बहुत मेहनत की.
1912 में बिहार वजूद में आ गया. जस्टिस नुरुलहोदा, सच्चिदादनंद सिन्हा, मज़हरुल हक़, राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों ने मिलकर 1917 में पटना युनिवर्सटी को वजूद में ला दिया. 1930 तक बिहार की सियासत में मुसलमानो और कायस्थों को एकतरफ़ा ग़लबा हासिल था. पर उसके बाद पटना मे भुमिहार, ब्राम्हण और राजपूत लॉबी की इंट्री होती है. ये वो दौर है जब मज़हरुल हक़, अली इमाम, हसन इमाम, सर फ़ख़्रुद्दीन, शाह ज़ुबैर जैसे लोगों का इंतक़ाल हो चुका था. फिर भी इलीट मुस्लिम और कायस्थ अपनी सियासत को क़ायम रखते हैं, बैरिस्टर युनूस, सुल्तान अहमद, अब्दुल क़य्युम अंसारी, सैयद महमूद, अब्दुल अज़ीज़, अब्दुल बारी जैसे लोग लगातार ख़ुद को सियासत में ज़िन्दा रखते हैं, कायस्थों की बड़ी लीडरशिप दिल्ली का रुख़ कर लेती है, सच्चिदानंद सिन्हा संविधान सभा के पहले अध्यक्ष बनते हैं, फिर डॉ राजेंद्र प्रसाद, वैसे डॉ राजेंद्र प्रसाद आज़ाद भारत के पहले राष्ट्रपति भी बनते हैं. बिहार की सियासत में श्रीबाबू, और अनुग्रह बाबू जैसे लीडर आते हैं. आज़ादी के बाद जहां मुसलमानो की सियासी नुमाईंदगी घटती ही चली गई वहीं कायस्थ भी धीरे धीरे ठिकाने लगा दिये गए. आज जहां भाजपा विरोध के नाम पर मुसलमान अपनी नुमाईंदगी के लिए इधर उधर झांक रहा है, दूसरे को आगे कर रहा है, वहीं कायस्थों को भाजपा का कोर वोटबैंक बना दिया गया है.
पटना वाले सिन्हा साहब का हाल आपको अच्छे से पता है, आजकल भाजपा से नाराज़ हैं, कभी आडवाणी ख़ेमे के बड़े लीडर थे, बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए निकाले गए यात्रा में कारसेवक थे. हज़ारीबाग़ वाले छोटके सिन्हा की हरकत तो पता ही है, गौ-आतंकियों का माला पहना कर स्वागत किया था; उनके अब्बु जान पुराने भाजपाई रहे हैं, आज कल भाजपा से ख़फ़ा चल रहे हैं. ज़रा ग़ौर कीजिए आज कल कायस्थों की सियासत कहां है? जिस भाजपा का उन्हे वोट बैंक कहा जा रहा है, वहां उसके दो बड़े लीडर ठीराने लगा दिये गए हैं. एक अपनी वजूद की लड़ाई लड़ने के लिए क़तिलों को माला पहना रहा है.
जहां तक बिहार के मुसलमानो के सियासी बेदारी का मामला है वो थोड़ा सा उस समय जागा जब 1971 में बिहार के मुसलमानो को बंगाल में चुन चुन कर मारा गया. ग़ुलाम सरवर और मुश्ताक़ अहमद जैसे लोग निखर कर सामने आये. फिर 1971 के बाद पैदा हुए कियौस को कम करने के लिए अब्दुल ग़फ़ूर साहब बिहार के मुख्यमंत्री बना दिये गए, वो बिहार के मुख्यमंत्री बनने वाले पहले मुसलमान थे, उनसे पहले 1937 में बैरिस्टर युनूस बिहार के प्रधानमंत्री बन चुके थे. पर बैरिस्टर युनूस और अब्दुल ग़फ़ूर की सरकार गिराने में जिस शख़्स का सबसे बड़ा हांथ था, वो हैं हमारे जेपी बाबू, यानी नितीश कुमार और लालु यादव के गुरु जाय प्रकाश नारायण, इत्तेफ़ाक़ से ये भी कायस्थ हैं. वैसे इसके पीछे एक लॉबी और भी थी जो आज भी बिहार में बहुत मज़बूत है. नितीश कुमार ने समता पार्टी बनाई, बिहार के पुर्व मुख्यमंत्री अब्दुल ग़फ़ूर की अध्यक्षता में बनी.
आज बिहार में कोई भी पार्टी मुसलमानो को उसकी नुमाईंदगी देने को तैयार नही है, टिकट नही दे रहे हैं, के ये नही जीत पायेंगे और ठीक कुछ यही हाल कायस्थों के साथ भी है. अब इन दोनो को सोचना होगा के उन्होने 1912 में जिस बिहार को वजूद में लाया था उसमें उनकी सियासी नुमाईंदगी कहां है ?

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