कौन थे वे लोग जो किसी भी आम आदमी को उसकी लड़ाई में ही नक्सल बना देते हैं?

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सवाल ये कतई नही है कि उन्होंने हमें मारा, हमारे छात्र भाईयों को मारा, साथियों को मारा, और कसम से बेरहमी से मारा…सवाल ये है कि, वे एक दिन सबको मार देने के लिए तैयार हैं। व्यवस्था के कठपुतली इन लाठियों को डर नही लगता है जनमत से, छात्रों की एकता से।

ये भरोसा इन्हें कौन देता है? यही है सबसे बड़ा सवाल।

सवाल ये भी नही है कि कितने छात्रों के सर फटे और कितनों के खून गिरे,  सवाल अब ये है कि हमारे अंदर कितना लहू है? जब एक व्यवस्था खुलेआम गुंडों को संरक्षण देती है और पुलिस उनकी लठैत बन छात्रों को पीटती है तो हमारा लहू खौलता क्यों नही।
सवाल अब ये नही कि, छात्रों की भीड़ ने गुस्से में एक गाड़ी का शीशा फोड़ दिया होगा। सवाल ये है कि जब कोई छात्र समूह अपने वाजिब मुद्दे, आत्मसमान, अपनी बहनों की इज्जत के लिए सड़क पर था, तो क्या पुलिस की लाठी इन वाजिब मुद्दों को ही मार मार के दफ़न कर देगी।
सवाल ये नही कि हम बाहरी छात्र कितने नरकीय अवस्था में कीमत से चौगुना किराया दे रहते हैं। सवाल ये है कि आप स्थानीय हैं तो क्या हमें मार के फेंक दीजियेगा एक दिन उसी नेहरू विहार के नाले में जहां हमने आपके दारु पी रहे बिगड़ैल बेटे को गाली देने पे टोक दिया था।
लेकिन सलाम है उन साथियों को जो कल मैदान में थे, हमने पुलिस की लाठी देख ली है, बहुत कमजोर है। बदन से टकराती थी तो फट जा रही थी। साथियों अपने हक़ और आत्मसम्मान के लिए लड़ाई जारी रखिये। सलाम है उन साथियों को जो कल से सोशल मीडिया में हमारे आंदोलन को ताकत देते हुए पूरी ताकत से हमारे साथ हैं। हम साथियों पे गिरी लाठी बंजर नही र्रही, उसने आक्रोश और आग की खाद से आंदोलन को दम दिया है।
एक बात जरूर आपसे शेयर करना चाहता हूँ। लाठी की मार से तो नही रोया पर कल एक घटना ऐसी हुयी जब रो दिया वापस कमरे पे आ के। मैं छात्रों के बीच बोल रहा था। तभी कुछ दूरी से कुछ साथी आये और बोले,”भाई आप निकल चलिये अभी। अँधेरे में कुछ होगा। मैंने पूछा, क्या?
तो पता चला,पता वे कहां से आये कौन दो चार लोग थे जो सीधे मिडिया और पुलिस को बता रहे थे” नीलोत्पल मृणाल नक्सल है। उसी ने तो हिंसक बनाया। उसकी विचारधारा जानते हो आपलोग? देश तोड़ता है? इसे हटाओ वर्ना ये जलवा देगा सब।”
पत्रकार ने सुन के उसे झिड़क दिया। वे लोग पत्रकार से उलझने लगे। फिर जब छात्र साथियों ने खदेड़ा तो हटे वे।
ये क्या है? कौन थे वे लोग जो किसी भी आम आदमी को उसकी लड़ाई में ही नक्सल बना देते हैं? ये किस ओर जा रहे हम? सोचिये उस वक़्त मैं किस खौफ से गुजरा होऊँगा जब हज़ारों की भीड़ में एक अफवाह किसी के नक्सल होने की फैलती हो। नमन है छात्रों को जो चट्टान की तरह साथ थे मिल के।
हम इतना क्यों डरते हैं जो किसी के ऊपर पहले कोई रंग और धारा पोत देते हैं फिर मारते हैं उसे। मैं यहीं हूँ, आप चाहें तो मुझे घेर के पुलिस से मरवा दें पर कसम से किसी अफ़वाह से तैयार अपनी भीड़ का शिकार मत बनाओ, मैं एक कायर भीड़ के हाथ नही मरना चाहता। ये कदम कदम पर ताकत बने साथियों का जब तक भरोसा है, बहुत मुश्किल है हमारे भीतर के सच को तोड़ना। बाहर से तो कल भी तोड़े हो, जानता हूँ आगे भी तोड़ोगे। पर साथी हमें टूटना नही है.जय हो।

जीवन रोज एक संग्राम है।
मारना तेरी मजबूरी है
लड़ना हमारा काम है।