विशेष – सीबीआई, विजय माल्या का प्रकरण और लुक आउट नोटिस

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लुकआउट नोटिस और विजय माल्या, ये दो नाम, आजकल यह नाम काफी चर्चा में है। यह भी अपराध के वैश्वीकरण के एक कारण है। अब दुनिया वैसी दुर्लंघ्य नहीं रह गयी है जैसी कभी पहले थी। अब ह्वेनसांग से लेकर इब्नबतूता से होते हुए राहुल सांकृत्यायन तक तक दुनिया की सरहदें नाप लेने वाले, अपने यात्रा वृतांतों से हम सबको चमत्कृत कर देने वाले, महान यायावर भी अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं। आज  अपने आरामदेह शयन कक्ष में बैठ कर दुनिया के किसी भी कोने में जाकर वहां की खबरें पढ़ सकते हैं, चित्र देख सकते हैं, किसी भी मित्र से वीडियो कॉल से वहां की गतिविधियां और होने वाली घटनाएं देख सकते हैं। अब यह दुनिया गोल नहीं रही कि कुछ दूरी के बाद धरती ही दिखना बन्द हो जाय क्यों गोल होती धरती प्रकाश के सीधी रेखा के गमन के सिद्धांत के कारण नज़रों से आभासी रूप से ओझल हो जाती है। अब दुनिया एक मोबाइल के छोटे स्क्रीन पर सिमट आयी है। रिलायंस के एक पुराने विज्ञापन के स्लोगन, ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में,’ के अनुसार, सच मे अब मुट्ठी में ही है।
कुछ सालों पहले एक बड़ी दिलचस्प किताब आयी थी, द वर्ल्ड इस फ्लैट। यह किताब संचार और कम्प्यूटर क्रांति पर है। किताब के लेखक हैं, टॉमस एल फ्रीडमैन। दस साल पहले लिखी गयी इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद अब दुनिया गोल नहीं, का पहला संस्करण 2010 में छपा था, जिसे पेंग्युन प्रकाशन ने निकाला था। यह किताब सच मे दुनिया को नए नज़रिए से देखने को प्रेरित करती है। यह किताब बताती है कि दुनिया के चार छोरों पर बैठे लोग कैसे एक दूसरे से बात करते हैं, दस्तावेजों का आदान प्रदान करते हैं, और अपने प्रोजेक्ट पूरे कर लेते हैं। वास्तविक मिलने जुलने की ज़रूरत ही नहीं रही। आज से दस साल पहले जब यह किताब लिखी गयी थी, संचार, कम्प्यूटर और सैटेलाइट के क्षेत्र में जो प्रगति तब थी  उससे कई गुना प्रगति अब हो गयी है। इस वैश्वीकरण ने दुनिया के जिन क्षेत्रों पर असर डाला है उनमें से एक क्षेत्र अपराध का भी है। अब अपराधों का स्वरूप भी जटिल, तकनीकी रूप से समृद्ध और अर्थ केंद्रित हो गया है। जालसाजी, कूट प्रवंचना, सायबर ठगी, बैंकिंग फ्राड के अपराधों का युग है यह। घोड़े पर बैठ कर चिट्ठी भेज कर बीहड़ो में छलांगे लगाते डकैतों का युग अब अतीत का एक अंश हो गया। अब तो ऐसी ऐसी जालसाज़ियाँ, ऐयारियां, मक्कारियाँ रोज़ रोज़ हो रही हैं कि अगर पुलिस उस बदलाव के त्वरा के अनुसार नहीं बदलेगी तो ऐसे अपराधियों का पकड़ना मुश्किल हो जाएगा।
दुनिया के एक विश्व ग्राम में बदल जाने के कारण लोगों का एक से अनेक मुल्क़ों में जाना, कारोबार करना एक सामान्य सी बात हो गयी है। लोगों के निवेश भी अगर वे ठीकठाक आर्थिक स्थिति में हैं तो विदेशों में सामान्यतया हो जाते हैं। अपराध ने भी अपना रंगढंग बदला तो जांच एजेंसियों ने भी ऐसे संगठित अपराधों से निपटने के लिये कमर कसी। दुनियाभर में पुलिस की जांचों में समन्वय करने के लिये 1923 में इंटरपोल ( इंटरनेशनल क्रिमिनल पुलिस ऑर्गनाइजेशन ) का गठन हो चुका था। इसे धीरे धीरे समय के साथ साथ और भी कारगर बनाया गया। भारत की सीबीआई सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन इस इंटरपोल की सदस्य है। दुनिया भर की जांच एजेंसियां इस शीर्ष संस्था के माध्यम से एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं। इंटरपोल के ही एक निर्णय के अनुसार दुनिया भर की पुलिस अपने अपने क्षेत्राधिकार में अपराधियों की धर पकड़ और उनकी निगरानी के लिये लुक आउट नोटिस जिसे तकनीकी भाषा मे लुक आउट सर्कुलर एलओसी जारी करती हैं। यह सर्कुलर यह बताता है कि जिस आदमी के लिये जारी किया गया है वह पुलिस द्वारा वांछित है, और उसे जहां है वहीं रोक लिया जाय। यह सभी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों पर जहां इम्मीग्रेशन विभाग होता है वहां दिया जाता है। यह पुलिस को देश से बाहर भाग रहे अपराधियों की धर पकड़ का अधिकार देता है।
इसे जारी करने के चार मुख्य आधार होते हैं।

  • यह भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा निर्धारित प्रोफार्मा में अंकित होता है। तो देश के सभी आव्रजन इम्मीग्रेशन चेक पोस्ट पर भेजा जाता है।
  • यह नोटिस भारत सरकार के उप सचिव या राज्य सरकार के संयुक्त सचिव, या जिले पुलिस अधीक्षक या डीसीपी जहां जैसी स्थिति हो, के द्वारा जारी किया जाता है।
  • जारी करने वाले अधिकारी का यह दायित्व है कि वह उक्त एलओसी में अभियुक्त की पूरी पहचान, नाम, पिता का नाम, पता, या पते यदि एक से अधिक पते हों तो, पहचान का चिह्न, अंगूठे का निशान, पुतलियों का विवरण, ( कम से कम तीन पहचान के चिह्न ज़रूर हों ) फोटोग्राफ, और उन मुकदमों का उल्लेख जिसमे यह अभियुक्त वांछित हो, पूरा विवरण दर्ज करे।
  • यह नोटिस एक साल के लिये प्रभावी रहती है। लेकिन सरकार या पुलिस चाहे तो इसे समयावधि समाप्त होने के पहले ही पुनः इसका समय बढ़ा सकती है। अगर एक साल के भीतर इस नोटिस की अवधि पुनः नहीं बढ़ायी जाती है तो, आव्रजन या इम्मीग्रेशन अधिकारी इसे स्वतः एक साल बाद रद्द कर देता है या मान लेता है।

जैसे सभी कानूनी प्राविधानों के दुरुपयोग की शिकायतें आती हैं, उसी प्रकार इसका भी अपवाद नहीं है। कभी कभी ऐसा भी हुआ है कि लोग एयरपोर्ट पहुंचे हैं और उनके खिलाफ लुकआउट नोटिस इम्मीग्रेशन में इंतज़ार कर रही है। दुरुपयोग की अधिकतर शिकायतें, पारिवारिक और वैवाहिक मुकदमों के बारे में आती हैं। क्योंकि ऐसे मुकदमों का एक उद्देश्य सज़ा दिलाना उतना नहीं होता है जितना कि परेशान करना या समझौते के दबाव डालना या आपसी खुन्नस निकालना। ऐसी शिकायतें एनआरआई आदि के साथ अधिक होती हैं।
गलत तरीके से लुकआउट नोटिस जारी करने के आरोप में अदालत में इससे हुए आर्थिक और सामाजिक नुकसान के लिये हुए नुकसान की पूर्ति के लिये अदालत में हर्जाने का दावा भी किया जा सकता है। पीड़ित व्यक्ति राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और अदालतों में ऐसे हर्जाने के लिये दावा दायर कर सकता है। ऐसा भी नहीं है कि जांच एजेंसियां या पुलिस हर मामले में लुकआउट नोटिस जारी ही करती हैं। यह जांच एजेंसियों और पुलिस के विवेक, मुल्ज़िम की ज़रूरत और सूबूतों के ऊपर निर्भर है कि वे किस मामले में इसे जारी करें और किस मामले में न करें। हाल ही में चर्चा में आये विजय माल्या के संदर्भ में लुकआउट नोटिस के प्रकरण को भी देखना दिलचस्प रहेगा।
लुकआउट सर्कुलर, पुलिस की विवेचना प्रक्रिया का एक भाग है। पुलिस को किसी भी संज्ञेय अपराध की विवेचना का अधिकार है। विवेचना के दौरान अभियुक्त की गिरफ्तारी, पूछताछ आदि की शक्तियाँ उसे कानून से मिली हुई है। 2016 में जब सीबीआई ने विजय माल्या के खिलाफ मुकदमा लिखा तो उसकी विवेचना के दौरान पूछताछ की ज़रूरत हुयी। माल्या तब सांसद थे। सांसद और वह भी सत्ताधारी दल का होने के नाते, सीबीआइ निश्चित रूप से विवेचना का हर कदम सोच समझकर ही उठायी होगी ताकि किसी राजनीतिक विवाद से बात का बतंगड़ न बने। विजय माल्या के खिलाफ भी जब वह सीबीआई द्वारा बुलाने पर नहीं आया तो उसके विदेश भाग जाने की आशंका को देखते हुए उसके खिलाफ लुक आउट नोटिस जारी किया गया। लुक आउट नोटिस में पहले यह लिखा गया था कि उसे डिटेन ( निरुद्ध ) एयरपोर्ट पर ही रोक लिया जाय, और सीबीआई को सूचित कर दिया जाय, पर बाद में डिटेन शब्द हटा कर वहां इन्फॉर्म शब्द अंकित कर दिया गया। यानी रोको मत, बस यह सूचना सीबीआई को दे दो कि वह आया था, पर चला गया। लुक आउट नोटिस की शब्दावली में यह परिवर्तन, चाहे जिस किसी के कहने पर किया गया हो, नोटिस के प्रारूप से अलग और गलत है। यह नोटिस ही इसलिए , जारी होती है कि अभियुक्त को रोक लिया जाय। क्यों कि यह तभी जारी की जाती है जब किसी के बाहर भाग जाने की संभावना होती है।
सीबीआई के ऊपर यह आक्षेप लग रहा है कि उसने जानबूझकर इस नोटिस के गुरुत्व को हल्का कर दिया। सीबीआई प्रमुख का कहना है कि उन्हें यह जानकारी नहीं है कि यह ऐसा कैसे किया गया। हालांकि अखबारों में जो खबरें छपी हैं, उनके अनुसार, 3 मार्च 2016 को मुंबई के एक होटल में बैंकरों के साथ सीबीआई प्रमुख की एक मीटिंग आयोजित थी। उसी मीटिंग में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी थे। यह मीटिंग विजय माल्या के ही बारे में थी। पर उसी दिन विजय माल्या फरार हो गया। लुक आउट नोटिस एक शब्द ( डिटेन से इन्फॉर्म ) के हेरफेर के कारण धरा का धरा रह गया। बाद में जब यह खबर संचार माध्यमों में आयी तो सीबीआई प्रमुख को बैंकरों की सख्त आलोचना सुननी पड़ी। लुकआउट नोटिस के बारे में 2009 से ही एक तयशुदा प्रोफार्मा और नीति थी। पहले पुलिस या सीबीआई ऐसे लोगों जिनके बारे में जिनके बारे में, यह संभावना होती थी कि वे विदेश भाग सकते हैं, पासपोर्ट जमा करा लेती थी। लेकिन, 2009 में सुरेश नंदा बनाम सीबीआई के मुक़दमे में पासपोर्ट को बिना किसी वैधानिक प्रक्रिया या अदालती आदेश के जब्त करने को सीबीआई ने अवैध घोषित कर दिया, तब सीबीआई ने पासपोर्ट के नम्बर ले कर लुकआउट नोटिस जारी करने का एक नया रास्ता निकाला।
लुकआउट नोटिस भी दो प्रकार की होती हैं। एक उस व्यक्ति के लिये जो किसी मामले में पुलिस द्वारा वांछित हो, और उसे देश से बाहर भाग जाने की संभावना हो। दूसरा उस व्यक्ति के बारे में जो किसी मामले में वांछित हो पर बाहर से आ रहा है। दोनों ही मामलों डिटेन किया जा सकता है । विजय माल्या के प्रकरण में लुक आउट सर्कुलर जारी करते समय, सीबीआई ने कुछ त्रुटियां की है। अब ये  त्रुटियां जानबूझकर की गयी हैं या अनजाने में हो गयी है, जब तक सभी तथ्य सामने नहीं आ जाते तब तक स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है। इस मामले में, पहला लुकआउट नोटिस 16 अक्टूबर 2015 को जिसमे निरुद्ध डिटेन, करने का आदेश अंकित था, जारी किया गया और फिर 24 नवम्बर 2015 को ही उसे बदल कर इन्फॉर्म शब्द, डिटेन के स्थान पर रख दिया गया। हालांकि सीबीआई यह तर्क देती है कि विजय माल्या बराबर विवेचना हेतु उपलब्ध होते थे। लेकिन लुकआउट कोई वारंट नहीं बल्कि अभियुक्त भाग न जाये इस लिये एक निरोधात्मक कदम है, जो जांच एजेंसियां ज़रूरी समझने पर उठाती हैं।

  • इस नोटिस में, पहली त्रुटि यह है कि, सीबीआई का यह कहना कि विजय माल्या के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे, इस लिये डिटेन शब्द हटा कर इन्फॉर्म शब्द जोड़ दिया गया तर्कसंगत नहीं है। अगर सुबूत नहीं थे तो पहले निरुद्ध करने का नोटिस पहले जारी ही क्यों किया गया ?
  • दूसरी गलती यह है कि, यह मामला 9,000 करोड़ के घपले का है और अभियुक्त बेहद प्रभावशाली तथा उसके संपर्क भी अत्यंत महत्वपूर्ण लोगों से हैं। फिर ऐसे मामले में जारी की गयी लुकआउट नोटिस में कोई भी परिवर्तन बिना सीबीआई निदेशक की अनुमति या सहमति के नहीं होना चाहिये था। जब कि नोटिस में परिवर्तन, संयुक्त निदेशक, एके शर्मा के स्तर पर, किया गया है।
    निदेशक सीबीआई ने इस पर अनभिज्ञता भी प्रकट की है। और इसीलिए वे बैंकरों की मीटिंग में जब माल्या के बारे में सवाल पूछे गए तो लुकआउट नोटिस में हुए इस बदलाव की अनभिज्ञता के कारण असहज हुये।

पुलिस की मूल समस्या है उसकी जांच प्रक्रिया या विवेचना प्रक्रिया में सरकार कितना दखल दे सकती है। अगर कानून की बात करें तो पुलिस को विवेचना के दौरान विभिन्न कार्यवाही करने के लिये कानून पर्याप्त शक्तियां प्रदान करता है। यहां तक कि अदालत भी विवेचना में कोई दखल नहीं देती है। अगर अदालत विवेचना का पर्यवेक्षण कर भी रही है तो वह साक्ष्य आदि के बारे में निर्देश देती है पर अपने निर्देश को पुलिस पर थोपती नहीं है। विवेचना का मूल साक्ष्य होता है और साक्ष्य जुटाने, उनकी समीक्षा करने, उनका परीक्षण करने का व्यापक कानूनी अधिकार पुलिस को प्राप्त है। लुकआउट नोटिस हो या कोई और नोटिस जो पुलिस साक्ष्यों के आधार पर, साक्ष्यों के एकत्र, परीक्षण या समीक्षा के लिये भेजती है वह न केवल बिना बाहरी दबाव के होनी चाहिए, बल्कि वह बिना बाहरी  दबाव के है यह परिलक्षित भी होना चाहिए।

© विजय शंकर सिंह