रंगबाज़… इस सीरीज़ का “हीरो” जो मरते दम तक विलेन रहा, उसे जब सिनेमा में फिल्माया गया तो Vineet Kumar Singh को चुना गया,जो अपने रॉल के साथ ईमानदार नज़र आये हैं। लेकिन सिर्फ ईमानदार नज़र आना काफी है? क्या सिर्फ ऐक्टिंग के बल पर एक विशालकाय शख्सियत को पर्दे पर उतारा जा सकता है? ये बहुत बड़ा सवाल है।
विनीत कुमार ने खुद को हमेशा साबित किया है,गैंग्स ऑफ वासेपुर में बाहुबली सरदार खान का बड़ा और दमदार बेटा बन कर और “मुक्केबाज़” में नेशनल लेवल का मेहनती बॉक्सर बन कर,असल मे तो हिंदी पट्टी का ये कलाकार बहुत शानदार है लेकिन “सीवान का शेर” नाम से मशहूर शख्स का रॉल आप सिर्फ एक्टिंग के बल पर कम्पलीट नहीं कर सकते हैं।
शाहबुद्दीन बिहार की राजनीति का वो अध्याय हैं,जिसने राजनीति में जैसे को तैसा जवाब दिया,जिसने एक ही जगह स्थापित रह कर विधायक से लेकर सासंद तक का सफर पूरा किया,सीवान में उस शख्स को “रॉबिनहुड” कहा गया,इस सब के साथ उसकी आँखों से उसके दुश्मन “खौफ’ खाते थे,वो जेल में हो या बाहर उस शख्स का सिक्का हमेशा चलता था,ये राजनीति में उसका वजूद था।
विनीत कुमार यहां ही कमज़ोर रह गए,वो पुलिस अफसर को थप्पड़ मारने वाले सीन तक में आंखों में तेज और और आवाज़ में रौब नहीं ला पाये, वहां निराशा हाथ लगी,क्योंकि जो नेता जब इस स्थान तक गया है तो वो यू ही तो नहीं गया है? वो बिहार की सबसे बड़ी पार्टी का दूसरे नम्बर का नेता है आखिर उस दृश्य मे गरज तो दिखनी ही चाहिए थी।
यहां कमी रह गयी,और ये कमियां न सिर्फ इस कहानी को कमज़ोर बनाती है,बल्कि ये बताती भी है कि आज भी हमारे यहां बायोपिक असली कहानियों से हटकर उस कहानी पर बनती है जो कहानियां अफवाहो के नाम पर चला करती हैं,वरना तेज़ाब कांड का सीन तो कोर्ट में विचाराधीन मुकदमे ही से अलग है।
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