Share

जानिए जनलोकपाल बिल का एतिहासिक सफर

by Nidhi Arya · September 13, 2021

लोकपाल बिल भ्रष्टाचार विरोधी बिल है। भारत के इतिहास में वर्षों से इस बिल को संसद के दोनों सदनों में पेश किया गया था। और दोनों सदनों की  असहमति के कारण ये बिल लटका रहा। संसद का इतिहास भी लोकपाल बिल का गवाह रहा है।

इस बिल का वर्षों से एक ही मकसद रहा है कि छोटे हो या बड़ा नेता,  या फिर सरकारी पद पर बैठा कोई भी अधिकारी, अगर अपने पद का दुरूपयोग करता है, तो उस पर लगाम लगाई जा सके। 

हमारे देश के सरकारी कर्मचारी अधिकतर भ्रष्टाचार में संलिप्त होते हैं और यही देश की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है। और इसका खामियाजा गरीब जनता को भुगतना पड़ता है।

भ्रष्टाचारी अधिकारी कागजी कार्यवाही के जरिए आम व्यक्ति को उलझा कर रखता है और मामले को रफा-दफा कर देता है। लोकपाल बिल को लोकायुक्त के साथ-साथ जनता को ऐसा हथियार देने की बात करता है जिसके दवारा साधारण व्यक्ति किसी भी सरकारी अधिकारी या मंत्री के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकता है।

 

लोकपाल बिल की शुरुआत-

श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में 1968 में पहली बार लोकपाल बिल वरिष्ठ वकील शांति भूषण द्वारा उसका सुझाव दिया गया था और इन्होंने ही पहली बार इसका ड्राफ्ट तैयार किया था। 1969 की चौथी लोकसभा में इसे पेश किया गया था।

11 अगस्त 1971 में लोकपाल और लोकायुक्त बिल लाया गया। इसे ना तो किसी समिति को भेजा गया और ना ही किसी सदन में इसे पारित किया। 28 जुलाई 1977 लोकपाल विधेयक को लाया गया और दोनों सदनों की संयुक्त समिति को भेजा गया। लेकिन इससे पहले ही छटीं लोकसभा स्थगित हो गई और एक बार फिर से यह बिल लटक गया।

1985 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लोकपाल विधेयक को 26 अगस्त 1985 को प्रस्तुत किया गया और 30 अगस्त 1985 को संसद में इस विधेयक के प्रारूप को पुनर्विचार के लिए प्रस्तावित कर समिति को भेज गया।

1989 में यह विधेयक एक बार फिर लाया गया। लेकिन 13 मार्च 1991 को लोकसभा की कार्यवाही स्थगित होने के बाद यह फिर से निष्प्रभावी हो गया। संयुक्त मोर्चा की सरकार ने 13 सितंबर 1996 को एक और विधेयक पेश किया था उसे 5 और रिपोर्ट देने के लिए विभाग से संबंधित गृह मंत्रालय की संसदीय स्थाई समिति को भेजा गया। 9 मई 1997 को संसद में अपनी रिपोर्ट पेश की और इसके अनेक प्रावधानों में व्यापक संशोधन किए गए, मगर तब तक 11वीं लोकसभा की कार्यवाही स्थगित हो गई थी।

गांधीवादी अन्ना हजारे आंदोलन-

सामाजिक कार्यकर्ता और गांधीवादी विचारों पर चलने वाले अन्ना हजारे ने एक बड़े आंदोलन को जन्म दे दिया था। अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ थे उन्होंने लोकपाल की मांग को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर जंतर-मंतर तक आमरण अनशन किया था। अप्रैल 2011 में अन्ना हजारे ने बड़े स्तर पर आंदोलन किया जिसमें आम जनता भी शामिल हुई और सरकार का कड़ा विरोध भी किया गया।

भारी जन दबाव के चलते हुए आखिरकार सरकार जन लोकपाल सहित अरुणा राय के विधेयक और सरकारी विधेयक पर सदन में चर्चा कराने के लिए तैयार भी हो गई थी। इसके बाद अन्ना हजारे ने 98 घंटे बाद अपना अनशन खत्म किया।

नहीं मिला संवैधानिक दर्जा

27 दिसंबर 2011 लोकसभा में बिल पास हुआ, परंतु इसे संवैधानिक दर्जा नहीं मिल सका। 29 सितंबर को राज्यसभा में हंगामे की वजह से निश्चित रूप से स्थगित करनी पड़ी थी। 10 दिसंबर 2013 को मुंबई में अन्ना हजारे  फिर से अनशन पर बैठ गए थे। 17 दिसंबर को राज्यसभा में भी इस बिल को पारित कर दिया गया।

इस बिल को संसद में कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने पेश किया था और विपक्ष कि नेता सुषमा स्वराज ने भी कहा था कि अगर इस बिल को पारित किया जाता है तो यह सत्र ऐतिहासिक हो जाएगा संसद को यह मौका नहीं खोना चाहिए। इसके बाद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी अपने हस्ताक्षर से लोकपाल बिल को हरी झंडी दे दी थी।

लोकपाल में सदस्यों की नियुक्ति– 

लोकपाल में सदस्यों की नियुक्ति चयन समिति के द्वारा प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में होती है। जिसमें लोकसभा के अध्यक्ष और लोकसभा में विपक्ष की नेता सदस्य भी शामिल होते हैं। सदस्य समिति कुल 8 व्यक्तियों की होती है। जिसमें 4 न्यायिक रिटायर्ड जज आते हैं। और 4 गैर-न्यायिक व्यक्ति होते हैं जोकि एससी ,एसटी ,पिछड़ी जाति, अल्पसंख्यक और महिला वर्ग शामिल होता है।

सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता रतन निगम का कहना है कि जो प्रशासन में काम करता है या कर चुका है वह अपने तजुर्बे का यहां सदुपयोग कर सकता है। 45 साल से कम उम्र के व्यक्ति या राज्य या केंद्र सरकार की नौकरी से बर्खास्त लोग व किसी पंचायत या निगम का सदस्य, नैतिक भ्रष्टाचार में दोषी पाए गए व्यक्ति ये सभी इसमें शामिल नहीं हो सकते हैं। साथ ही न्यायपालिका और सेनाएं इसकी जांच के दायरे में नहीं होगी।

Browse

You may also like