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नज़रिया – उथल-पुथल का एक आश्चर्यजनक अनुक्रम दिखाई देता है

by Sushobhit · December 16, 2019

भारत में जो दृश्य इन दिनों दिखाई दे रहे हैं, उन्हें जादुई यथार्थवाद की ही संज्ञा दी जा सकती है! उथल-पुथल का एक आश्चर्यजनक अनुक्रम दिखाई देता है। उस पर भी कमाल यह कि यह सब स्वतःस्फूर्त नहीं, रचा गया मालूम होता है। वैमनस्य की राजनीतिक पूंजी कोई नई धारणा नहीं है, किंतु रामबाण की तरह यह सदैव अचूक है। कौन विश्वास करेगा कि यह वही देश है, जिसने चंद महीनों पूर्व आम चुनावों में एक पॉपुलर मैंडेट दिया था? कौन विश्वास करेगा कि यह वही देश है, जिसके पास दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी है, जिसकी वैश्विक आकांक्षाएं बताई जाती है?
वही देश आज सहसा स्वप्नहीन और प्रतिक्रियावादी बन गया है। या बनाया जा रहा है? आज से एक साल पहले कौन-सी चीज़ लोकप्रिय विमर्श में हावी थी और आज किन बातों पर बहस की जा रही है, इसका भेद देख लीजिए। विभाजन के संदर्भ पुनः प्रासंगिक बना दिए गए हैं। अतीत के प्रेतों को पुकारा जा रहा है। गोडसे और सावरकर चर्चा के केंद्र में आ गए हैं। गांधी जी को नियमपूर्वक नियमित गालियां दी जा रही हैं। वैसी निष्फल इतिहास-रूढ़ि के तात्कालिक राजनीतिक लाभ चाहे जितने हों, कोई दूरगामी परिणाम उससे सम्भव नहीं है।
भारतीय जनता पार्टी के उग्र से उग्र समर्थक के पास भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं होगा कि जिन भावनाओं को वह उकसा रहा है, उन्हें किस तरह की तार्किक परिणति तक वह लेकर जाएगा। भारत का एक और विभाजन नहीं हो सकता।  हो भी तो क्लासिकल टू-नेशन स्प्लिट, जिसमें एक एक व्यक्ति की अदल-बदल हो, आज भी उतनी ही असम्भव है, जितनी गांधी जी के समय में थी।
भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों को अगर लगता है कि गांधीजी बड़े दुर्बल थे और नरेंद्र मोदी-अमित शाह की युति बड़ी बलवान है, तो भारत के बीस करोड़ मुसलमानों के साथ क्या किया जाए, इसका एक सुविचारित और टिकाऊ कार्यक्रम वो देश-दुनिया के सामने रख सकते हैं। इसी विधि से सब जान लेंगे कि गांधीजी से बेहतर उन्होंने क्या सोचा है, जबकि 1940 के दशक का मुस्लिम अलगाववाद उतना ही वास्तविक था, जितना फ़ैब्रिकेटेड वर्तमान का असंतोष है। गांधी और मोदी के बीच चुनौतियों का भेद है। मनसूबों का तो है ही।
दुनिया की कोई भी समझदार हुकूमत वैसी चुनौती का सामना करने पर पंडित जवाहरलाल नेहरू की तरह मुस्लिम पुनर्जागरण के प्रसंगों को पोषित करने का यत्न ही करती, उसकी अलगाववादी प्रवृत्तियों को उकसाने की भूल नहीं करती। किंतु हमारी हुकूमत तो उस एएमयू के वाचनालय पर आक्रमण कर रही है, जिसका वाइस चांसलर कौन हो, इस प्रश्न पर गांधी जी 1917-18 में सिर खपाया करते थे। एएमयू और बीएचयू के महत्व को लेकर वो अतिशय सचेत थे। आज लगता है हम सौ साल से भी ज़्यादा पीछे चले गए।
कितने शोक की बात है कि भारत-देश के प्रधानमंत्री सार्वजनिक सभा में इस तरह की बातें कहते हैं कि बंगाल में जिन लोगों ने रेलगाड़ियों पर हमला किया, उनका पहनावा देखकर पहचान लीजिए, वो कौन हैं। वैसा वो अपने नागरिकता संशोधन क़ानून को जायज़ ठहराने की होड़ में कह जाते हैं। वर्ष 2002 में जब गुजरात में नरसंहार हुआ था, क्या तब भी उन्होंने दंगाइयों के परिधान का रंग पहचानने का प्रयास इसी तत्परता से किया था? इंटरनेट पर विषगंगा प्रवाहित करने वालों की निष्ठा किसमें निहित है, इसका भी क्या लेखा-जोखा रखा जाता है? जब देश का प्रधान ही वैसी बातें कहता हो तो सबको आने वाले कठिन समय के लिए बहुत मायूस हो जाना चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी की व्यग्रता चकित करने वाली है पैंतीस वर्षों का सबसे बड़ा बहुमत लेकर कुछ ही महीनों पहले यह पार्टी सत्ता में आई है, विश्वास नहीं होता। उसके डेस्पेरेशन का मूल कहां पर है? अर्थनीति की विफलता? या राज्यों में सिमटता दायरा? या महाराष्ट्र के परिणामों से हुई शर्मिंदगी? संसद में केंद्रीय गृह मंत्री ने कहा था कि हम राजनीति से प्रेरित नहीं हैं, आम चुनाव अभी साढ़े चार साल दूर हैं। उन्होंने ये नहीं बताया कि दिल्ली, बंगाल और बिहार के चुनाव सिर पर हैं। यह तो कोई नहीं मानेगा कि देश में जिस तरह के हालात निर्मित किए जा रहे हैं, वे निष्काम-कर्मयोग का प्रतिफल हैं।
पहले जनेवि और अब अमुवि के छात्रों की प्रतिक्रिया ने राजनीतिक कथानक में रंग ही भरे हैं। “ख़िलाफ़त 2.0” सुनकर वो मुस्कराए हैं। यही तो वो सुनना चाहते थे! नैरेटिव निर्माण के खेल में यह ठीक वही भूमि है, जहाँ वो प्रतिपक्ष को लेकर आना चाह रहे थे। सरकार छात्रों के उग्र प्रतिरोध से पोषित हो रही है, क्योंकि वो जानती है उसे कौन वोट देगा। एक हिंदू राष्ट्रवादी ने फ़ेसबुक पर लिखा, सोच-समझकर लोहा गर्म किया जा रहा है, फिर हथौड़ा मारा जाएगा। किंतु दिल्ली और बंगाल का चुनाव जीतने के लिए यह हथौड़ा देश के लिए बहुत महंगा सौदा है!
इस सबके मूल में नागरिकता संशोधन क़ानून है। रिकॉर्ड के तौर पर बता दूं, इस क़ानून का विरोध करने वाले किसी भी ज़िम्मेदार व्यक्ति ने यह नहीं कहा है कि पाकिस्तान में सताए गए हिंदुओं को भारत में प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा। अलबत्ता प्रचारित यही किया जा रहा है। वास्तव में यह भी कोई नहीं कहता है, कि पाकिस्तान के मुसलमानों को भारत में क्यों नहीं आने दिया जा रहा? क्योंकि इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि नागरिकता संशोधन क़ानून अपने स्वरूप में भारत-पाकिस्तान और हिंदू-मुस्लिम प्रश्न का री-हाइफ़नाइज़ेशन करता है, यही उसका मक़सद है. यह सत्तासीन दल का प्रिय विषय भी है। संसद में इस पर बड़ी साधुभाषा में बहस हुई थी और यह स्थापित किया गया था कि ऐसी बातें कहना किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को शोभा नहीं देता।
किंतु झगड़े के मूल में नागरिकता संशोधन क़ानून से अधिक राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर है, जो अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर पाने वाले किसी भी मुस्लिम को इस क़ानून की मदद से सरकार के रहमोंकरम पर छोड़ देने की ताक़त रखता है। सीएए पर बात करते हुए इस परिप्रेक्ष्य को नज़र से ओझल नहीं होने दें।  साथ ही यह भी याद रखें कि हिंसक प्रतिरोध और अलगाववादी नारा ऐन वही चीज़ है, जो इस वर्जिश के ज़रिये सरकार उभारना चाहती है. आंदोलनकारियों को सरकार के हाथ में खेलने से बचना चाहिए। प्रधानमंत्री ने आगजनी करने वालों के पहनावे की शिनाख़्त करके अपने लक्ष्यों की ओर संकेत कर दिया है। हिंदू राष्ट्रवादी पहले ही उसे “एक और गोधरा” कहने को मचल रहे हैं!
मुझे बार-बार यूपीए-2 की याद आती है। 2009 का चुनाव जीतने के बाद 2010 आते-आते मनमोहन सिंह की दूसरी पारी वाली सरकार अत्यंत अलोकप्रिय हो गई थी और इसके बाद चार साल लंबी एंटी इनकम्बेंसी को देश ने संताप से झेला।  दु:ख की बात है कि उस हताशा के रथ पर सवार होकर सत्ता में आने वाले नरेंद्र मोदी की दूसरी पारी वाली सरकार ने देश पर वैसी ही अरुचिकर एंटी इनकम्बेंसी थोपने के लिए एक साल भी इंतज़ार नहीं किया है

सुशोभित

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