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क्या राजनेता जनता और डेटा के फ़र्क को समझेंगे?

by Prashant Tandon · January 27, 2019

यूपीए ने 2014 के चुनाव से पहले सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दे दिया था शायद ये सोच कर कि सचिन के चाहने वाले आंख बंद कर के कांग्रेस को वोट दे आयेंगे – पर ऐसा हुआ नहीं.
अब मोदी ने भी वही प्रयोग किया है प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न दे कर और सोच रहे होंगे कि मास्टरस्ट्रोक खेल दिया है पश्चिम बंगाल की राजनीति में. नवीन पटनायक की बड़ी बहन और लेखिका गीता मेहता को पद्मश्री देकर मोदी उड़ीसा की राजनीति में भूचाल लाना चाहते थे पर हो न सका क्योंकि गीता मेहता ने भूचाल को कागज में लपेट कर उन्हे वापिस कर दिया.
इसी तरह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का सवर्ण आरक्षण पर समर्थन और यूनिवर्स्टीज़ में 13 पॉइंट रोस्टर लागू करने पर चुप्पी चकित करने वाली है. राजनीतिक पार्टियों के कई फैसले उनके समर्थको को निराश करते हैं और विश्लेषकों को आश्चर्य में डाल देते हैं.
इस तरह के तमाम फैसलों की वजह है कि राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता आज कल अपनी आंख और कानों का कम इस्तेमाल कर रहे और डेटा का ज्यादा. सभी फैसले डेटा देख कर लिए जारहे हैं. सबने अपने अपने वॉर रूम बना लिए हैं और एजेंसियां लगा ली हैं जो इन्हे डराने वाले डेटा थमा देती हैं. नेताओं ने लोगो के बीच जाना और समाज में घुलना मिलना बंद कर दिया है. इन लोगो का उठना बैठना अब बुद्धिजीवियों के साथ नहीं होता है लिहाजा समाज की नब्ज़ को ये नहीं सुन पा रहे हैं.
इन्हे कोई समझाये कि आज तक ऐसी कोई टेक्नॉलॉजी नहीं बनी है जो सीधे संवाद का विकल्प हो. जनता डेटा नहीं होती है वो जनता होती है.

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