नज़रिया – ये नाम बदलने वाली राजनीति दकियानूसी और सांप्रदायिक कुंठा का प्रतीक है

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सावरकर ने अंग्रेज़ों को माफीनामा लिखा, आपने उन्हें ‘वीर’ माना और सावरकर के नाम के साथ वीर सावरकर लिख दिया, किसी ने रोका क्या? पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने देश में सांप्रदायिक बीज बोने में महत्तवपूर्ण योगदान दिया, आपने उन्हें अपना आदर्श माना किसी ने रोका क्या?
आपने दीन दयाल उपाध्याय के नाम मुग़ल सराय रेलवे स्टेशन पर टांग दिया यह आपका नैतिक पतन था, आप चाहते तो दीन दयाल उपाध्याय के नाम से सैंकड़ों स्टेशन बना सकते हैं लेकिन आपकी कुंठा तभी शान्त होती है जब आप बनी बनाई इमारत पर, दूसरे की मेहनत पर अपने नाम का बोर्ड लगा देते हैं।
गोडसे ने गांधी को मारा और आपके अनुषांगिक संगठनों के लोगों ने गोडसे का मंदिर बनाया, गोडसे को राष्ट्रवादी और भगवान बताया किसी ने रोका क्या? आपके पार्टी मुख्यालय में गोडसे की लिखी हुई किताब ‘गांधी वध क्यों’ बिकती है किसी ने रोका क्या? आप गांधी की हत्या को ‘वध’ लिखते हैं, वध क्या होता है ? किसका होता है ? वध वही होता है जो कोई धर्मयोद्धा किसी राक्षस की हत्या करता है। तो क्या गांधी आपकी नज़र में राक्षस हैं?
खैर आगे चलते हैं आज़ादी मिलने से पहले आप अंग्रेज़ों में अपना हीरो देखते थे और आज़ादी मिलने के बाद आप हत्यारे, बलात्कारियों, आतंकवादियों में अपना हीरो देखते हैं। आप याद ही नहीं रखना चाहते कि इसी देश पर मुसलमानों ने भी शासन किया था उन्होंने नाम बदलने जैसी ओछी हरकतें नहीं कीं उन्होंने रामपुर का नाम नहीं बदला, सीतापुर का नाम नहीं बदला, अयोध्या का नाम नहीं बदला, जयपुर का नाम नहीं बदला, वाराणसी का नाम नहीं बदला, बल्कि अलग शहर बसाए, अलग अलग नाम के साथ बसाए।
लेकिन आप यह सबूत देने में बिल्कुल भी कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं कि आप दकियानूस, कूपमंडूक, सांप्रदायिक, और गंदी मानसिकता रखते हैं। आप बता रहे हैं कि आपके यहां नैतिकता नाम की कोई चीज़ नही है। आप बता रहे हैं कि आपके यहां न्याय नाम की कोई चीज़ नहीं है। आपको सत्ता मिली, कुर्सी मिली, नौकर चाकर मिले, देश की बागडोर मिली मगर आप नैतिकता, और न्याय से महरूम रह गये।