पाकिस्तान के उस नेता का इंटरव्यू, जो ख़ुद को भारत से जोड़ता है

Share

यह एक लंबा वीडियो टाक शो है। TAG टैग  टीवी  के वरिष्ठ पत्रकार अनीस फारूकी ने अल्ताफ हुसैन से लंबी बात की है। अल्ताफ हुसैन पाकिस्तान के प्रतिबंधित संगठन एमक्यूएम के संस्थापक और नेता हैं और उनका कहना है कि उनकी पार्टी पाकिस्तान की तीसरी और सिंध की दूसरी सबसे बड़ी सियासी पार्टी है। अल्ताफ के पिता जब 1947 में पाकिस्तान बंटा तो आगरा से कराची चले गये। वहां जाकर वे बसे। केवल अल्ताफ के पिता ही नहीं बल्कि जब व्यापक तौर पर धर्म आधारित पलायन जिसे हिजरत कहा जाता है तो उत्तरप्रदेश, बिहार, पंजाब हरियाणा एमपी आदि से भारी संख्या में लोग पलायित हो कर गए और कराची तथा लाहौर में बस गए। पूर्वी पंजाब यानी हिंदुस्तानी पंजाब से गये लोग वहां जज़्ब हो गए क्योंकि उनकी भाषा, खानपान, रिवायतें आदि साझी थीं।
पर उत्तर प्रदेश, बिहार या उत्तर भारत से गये लोग वहां जज़्ब नहीं हो पाए। इन हिजरत करने वालों और पाकिस्तान के लाहौर, कराची आदि प्रमुख नगरों में बसने वाले यूपी बिहार के लोगों की संस्कृति पंजाब, और सिंध की संस्कृति से बिल्कुल अलग थी। बस धर्म एक था। पर धर्म कभी भी यकजहती का आधार नहीं रहा है। संस्कृति, भाषा,खानपान, रिवायतें, क्षेत्रीय आदतें, और बोलियां धर्म के बंधन पर सदैव भारी पड़ जाती हैं।
लेकिन 1940 से 47 तक जो धर्म के पागलपन का दौर था उसमें यह सारे फैक्टर भुला दिये गए हैं। उन्माद कुछ सोचने भी तो नहीं देता है। उस समय यही लग रहा था कि जो भो ला इलाहा इल्लल्लाह कह रहा है वह एक ही दिमाग, सोच और मानसिकता रखता है। और इन्हें एक साथ ही रहने का अधिकार है। तो जो इस्लाम मानते थे वे एक कौम हैं और कौम ही राष्ट्र है, मुल्क है। बस एक मुल्क बन गया। न भूगोल देखा गया, न संस्कृति, न मौसम न भाषा और न रीतिरिवाज। पर पाकिस्तान बनने के दस साल में ही पूर्वी पाकिस्तान यानी बंगाल कसमसाने लगा क्योंकि उसकी भाषा, रीतिरिवाज, संस्कृति पश्चिमी पाकिस्तान से बिल्कुल अलग है। धर्मांधता का भूत उतरने लगा और 1971 में वह एक अलग मुल्क बन गया।
इसी प्रकार कराची और सिंध में गये उत्तर भारत के लोगों ने जब अपनी पहचान ढूंढनी शुरू कर दी तो, वे सिंधी जुबान, संस्कृति और रवायतों में बिल्कुल फिट नहीं बैठे। फिर हर चीज़ अर्थ पर ही आकर टिकती है। यहां से गये लोग पढें लिखे और आंखों में एक अलग इस्लामी मुल्क का सपना लेकर गए थे। सोचा था वहां इनके साथ दोस्ताना और मुहब्बतना सलूक होगा, पर ऐसा होना तो दूर की बात है, वे सिंध में ही बेगाने हो गए। बाद में जब सिंध के लोगों का पंजाब से सांस्कृतिक टकराव हुआ तो मुहाजिर बिलकुल अलग कर दिए गए। क्योंकि पाकिस्तान की चार बड़ी संस्कृतियों, पंजाब, सिंध, बलोच और पख्तूनों में वे कहीं के नहीं थे। जहां से उजड़ कर वे वहां गये थे, वह तो उनसे भौगोलिक रूप से बहुत दूर था।
जिस मुल्क को यहां से गये मुस्लिम समाज ने बड़े उम्मीद से पाया था वहां वे ही बेगाने हो गए। वे उर्दू जुबान बोलते थे। पर उर्दू पाकिस्तानी के किसी भी इलाके की भाषा नहीं थी। पंजाब की पंजाबी और सरायक़ी, सिंध की सिंधी, बलोचिस्तान की बलोची, खैबर पख्तूनख्वा की पश्तो और पूर्वी पाकिस्तान की बांग्ला भाषाएं तो थीं, पर उर्दू तो किसी भी इलाके की जुबान नहीं थी। सैन्य शिविरों में अरबी, फारसी, तुर्की, हिंदवी, आदि आदि भाषाओं और बोलियों की एक खूबसूरत जुबां कब एक धर्म के साथ वाबस्ता हो गयी पता ही नहीं चला। और आज पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू है।
साहित्य, परंपरा, प्राचीनता और लोककथाओं की समृद्ध परंपरा समेटे बांग्ला ने 1956 तक आते आते उर्दू के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर दिया। पहले भाषा, फिर संस्कृति, फिर सभ्यता से बिल्कुल पूरब और पश्चिम का भेद लिये पूर्वी पाकिस्तान एक अलग देश बन गया और नाम भी उर्दू का नहीं बांग्ला का पड़ा, बांग्लादेश। सोनार बांग्ला। धर्म तथा राष्ट्र एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, यह मिथ्या सिद्धांत जो 1937 से 1947 तक गढ़ा गया था, ध्वस्त हो गया।
अनीस फारूकी ने एक घण्टे पैंतीस मिनट के इस इंटरव्यू में अल्ताफ हुसैन से द्विराष्ट्रवाद, पाकिस्तान का जन्म , कायदे आज़म जिन्ना, हिजरत, मोहजीरों की स्थिति, पाकिस्तान सरकार, पाकिस्तानी सेना की सत्ता पर वर्चस्व, इमरान खान की बेबसी, पुलवामा हमला और आतंकवाद पर बहुत ही बेबाकी से अपनी बात रखी है। अल्ताफ की आवाज़ नाटकीय लगती है, लगता है वे कोई अभिनय कर रहे हैं, अपनी बात दबा कर कहने की आदत है उन्हें, शब्द दर शब्द वे धीरे धीरे बोलते हैं, इसलिए यह इंटरव्यू लंबा तो है पर उबाऊ नहीं है।

मैं इंटरव्यू में जिन जिन विषयों पर उन्होंने अपने विचार व्यक्त किये हैं उन्हें संक्षेप में यहां प्रस्तुत कर दे रहा हूँ।

  • द्विराष्ट्रवाद अंग्रेज़ो की थियरी थी जो उन्होंने 1857 के आज़ादी के जंग के बाद से ही हिन्दू मुस्लिम को आपस मे लड़ाने के लिये ही पैदा की। जब प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो गया तो उन्हें लगा कि दुनियाभर के उपनिवेशों में जागृति बढ़ रही है और भारत यानी यूनाइटेड इंडिया को अधिक समय तक उपनिवेश बनाए रखना संभव नहीं होगा तो उन्होंने देश को कमज़ोर करने के लिये हिन्दू मुस्लिम कार्ड खेला और यही विभाजन का आधार बना।
  • उस समय के जो बड़े रहनुमा ( उन्होंने जिन्ना का नाम नहीं लिया बाबा अजीम कहा ) अंग्रेजों के इस जाल में आ गए। अल्ताफ यह भी कहते हैं कि बादशाह खान और मौलाना अबुल कलाम आजाद की बात मुस्लिम कौम ने नहीं सुनी। वे अनसुने हो गए।
  • यह सोचना ही मूर्खता थी कि केवल धर्म के नाम पर कोई मुल्क कैसे बन सकता है। वे खुद अनीस फारूकी से कहते हैं कि आप दुनियाभर के इतिहास में एक भी मुल्क बता दें तो धर्म की बुनियाद पर बना हो। मैं इस मामले में द्विराष्ट्रवाद के समर्थक किसी भी विद्वान व्यक्ति से टीवी पर बहस करने को तैयार हूं। अगर मैं हार गया तो जो भी सज़ा मुकर्रर हो मैं वह भुगतने के लिये भी तैयार हूं।
  • मोहाजिरो के पाकिस्तान में बसने के बारे में वे कहते हैं कि जब वे इंडिया से आये तो यहां पंजाबी थे, सिंधी, बलोच, पख्तून और बंगाली थे पर वे इनमे से कुछ भी नहीं थे। अलग थे। उन्हें किसी ने भी नहीं अपनाया। वे अपनी अलग पहचान उर्दू और मुस्लिम के रूप में रख रहे थे पर उन्हें किसी ने नहीं अपनाया। वे अलग थलग पड़े रहे।

यह पूछने पर कि कराची में बसने वाले मोहाजिर आखिर सिंधियों के साथ घुल मिल क्यों नहीं गए ?

  • इस पर अल्ताफ का कहना है कि हमने अपनी आदतें बदल ली। सलवारें पहनी, उनकी जुबान सीखी। उनकी रवायत सीखीं। पर फिर भी हम घुलमिल नहीं पाए। वे हमसे अलग ही बने रहे।
  • पूर्वी पंजाब से गये लोग तो आसानी से घुलमिल गये क्योंकि उनकी संस्कृति, भाषा,परम्पराएं एक ही थीं।लिहाजा हम न सिंध में घुलमिल पाए न ही पंजाब में। बंगाल में भी जो पश्चिमी बंगाल से गये थे वे भी बांग्लादेश में घुलमिल गये क्योंकि वे भी भाषा, संस्कृति और रीतिरिवाज से एक ही थे।
  • पर हम जो यूपी बिहार से पाकिस्तान आये वे आज भी अलहदा बने हैं। उन्हें न सिंध ने स्वीकार किया और न ही पंजाब ने। बलोचिस्तान और ख़ैबरपख्तूनख्वां में मोहाजिर बहुत कम गये।

दहशतगर्दी पर पूछने पर उनका साफ कहना था कि पाकिस्तान की सरकार किसी भी दशा में चाह कर भी दहशतगर्दी पर रोक नहीं लगा सकती है। क्योंकि सेना सरकार पर हावी है और सेना दहशतगर्द को पनाह देती है। ऐसा नहीं है कि पाक सेना केवल भारत मे ही दहशतगर्दी को फैलाती है बल्कि वह बलोचिस्तान, सिंध, और केपीके में भी राजनीतिक हत्याएं कराती है।
बलोचिस्तान के बारे में उनका कहना है कि यह तो अलग आज़ाद मुल्क था। जिसे पाकिस्तान ने सेना के बल पर कब्जा कर लिया। और अब भी जब बलोचिस्तान खुद मुख्तारी या आज़ाद होने की बात करता है तो आज़ाद बलोच के समर्थकों को पाकिस्तानी सेना न केवल प्रताड़ित करती है बल्कि मार भी देती है।
यही रवैय्या उन्होंने जीये सिंध मूवमेंट के समय अपनाया और अब यही रवैय्या वे बलोच और केपीके के लिये अपना रहे हैं। बंगाल तो भौगोलिक रूप से बहुत दूर था तो वहां पाकिस्तान की सेना कुछ कर नहीं पायी और बंगाल अलग भी हो गया।

आतंकवाद के बारे में उन्होंने रूस और अमेरिका के बढ़ते तनाव और आपसी दादागिरी का परिणाम माना है।

उनके अनुसार, जब सोवियत रूस ने सेंट्रल एशिया के मुल्कों में अपना प्रसार करते करते अफ़ग़ानिस्तान तक आ पहुंचा और उधर चीन कम्युनिस्ट हो ही गया था तो ब्रिटेन के इस इलाके को खाली कर देने के बाद अमेरिका ने इधर अपना ध्यान लगाया। अफगानिस्तान में जो शासन था वह सोवियत समर्थक था। जब सोवियत यूनियन टूटने लगा तो अमेरिका को अफगानिस्तान के राज्य को रूसी प्रभाव से मुक्त कराने का विचार आया। उसने सीधे दखल देने के बजाय एक आतंकी संगठन गठित किया जो तालिबान था। कट्टरपंथी विचार की आड़ में तालिबान ने अपेक्षाकृत तत्कालीन उदार अफगानिस्तान के खिलाफ खड़ा हुआ। और इस प्रकार दहशतगर्दी की एक नयी खेप बनी। आज अफगानिस्तान की क्या हालत है यह किसी से छुपा नहीं है।
अल कायदा, तालिबान, आईएसआईएस आदि सभी आतंकी संगठन अमेरिका ने मध्य पूर्व में अपना वर्चस्व कायम रखने के लिये सऊदी अरब की मदद से तैयार किया। अब जो पाकिस्तान है वह चीन और सऊदी अरब का साझा ग़ुलाम है। इस क्षेत्र में जब इंडीया ने अमेरिकी कैंप में जाने से इनकार कर दिया तो उसने पाकिस्तान को पाकिस्तानी फौज के माध्यम से अपनी सरपरस्ती में ले लिया। यहां वही होता है जो फौज चाहती है।
चाहे बलोचिस्तान हो या सिंध या केपीके उन सभी को पंजाबी वर्चस्व और फौज की दहशतगर्दी से ऐतराज़ है और हमे भी है। देर सबेर इनकी बात सुननी पड़ेगी। पाकिस्तान को यूनाइटेड स्टेटस ऑफ अमेरिका की तरह अलग अलग सूबे में बंटना होगा।
अल्ताफ ने यह कह कर के अमेरिका के विभिन्न स्टेटस के अलग अलग नक्शे दिखाए और कहा कि पाकिस्तान का बनना ही मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी भूल है। यह अंग्रेजों और अमेरिका की एक चाल थी जो हमारे तब के रहनुमा समझ नहीं पाए और एक ऐसा फैसला ले लिया कि पीढियां भुगतेंगी।

यह पूछने पर कि आप वतन कब जाएंगे। अल्ताफ खामोश हो गए और कहा जी ?
फिर अनीस फारूकी ने पूछा कि पाकिस्तान कब जाएंगे। तब अल्ताफ ने एक शेर पढा,

जब वतन था, तो आज़ाद नहीं थे,
अब वतन है तो आज़ाद नहीं हैं।

  • अपनी विरासत को हिंदुस्तान से जोड़ते हुए अल्ताफ ने साझी विरासत की बात की और उस पर गर्व किया है।
  • अंत मे अनीस के यह कहने पर कि आप अपना कोई प्रिय गीत सुनाएं।
    तब अल्ताफ हुसैन ने अल्लामा इकबाल का प्रसिद्ध तराना ए हिन्द, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा गाकर सुनाया।

इस आरोप पर कि अल्लामा इकबाल खुद पाकिस्तान चाहते थे।

अल्ताफ का कहना है कि इकबाल एक ऐसा खित्ता इलाका हिंदुस्तान के अंदर ही रह कर चाहते थे जहां इस्लामी संस्कृति और रवायत सुरक्षित रह कर फले फूले। वे अलग मुल्क नहीं चाहते थे।  अल्ताफ ने अपनी बात के समर्थन में अल्लामा इकबाल के पुत्र जावेद इकबाल जो पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट के जज थे जो अब जीवित नहीं है की पत्नी से यह जानकारी लेने को कहा कि आप उनसे पूछ लीजिये कि अल्लामा इकबाल क्या चाहते थे।

पुलवामा हमले पर पाकिस्तान क्या दहशतगर्दी करने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही करेगा ?

इस पर अल्ताफ का कहना है कि सरकार कर ही नहीं सकती है क्योंकि इमरान खान खुद एक कठपुतली हैं और सारे दहशतगर्द सेना के ही प्रोटेक्शन में हैं। सेना के खिलाफ जाने का साहस ही सरकार में नहीं है।
अल्ताफ हुसैन 1992 से पाकिस्तान से बाहर हैं और वे इंग्लैंड में स्वतः निर्वासित जीवन जी रहे हैं। उनकी पार्टी 1988 और 1990 में पाकिस्तानी नेशनल असेंबली में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी चुकी है।
इस इंटरव्यू के मुख्य मुख्य अंश मैंने यहां दे दिए हैं। अल्ताफ के इस इंटरव्यू से एक बात स्पष्ट है कि भारत का विभाजन साम्राज्यवादी गोरी ताकतों का एक षडयन्त्र था जिसकी चपेट में हमारे सभी नेता चाहे वे कितने भी बड़े और कद्दावर क्यों न रहे हों पर इस मौके पर वे बौने साबित हुए।

इसके साथ पाकिस्तान सम्बंधित मामलों के जानकार डॉ प्रमोद पाहवा की यह टिप्पणी भी पठनीय है

” इसके पीछे नहीं जाएंगे कि एमक्यूएम क्यो बनी लेकिन यह सत्य है कि दो राष्ट्र सिद्धांत अंग्रेज़ो के दिमाग की साज़िश थी और सावरकर ने उसे सबसे पहले उठाया।
जिन्नाह अहंकारी व्यक्तित्व का स्वामी था और उसकी इसी मानवीय कमजोरी का लाभ लियाक़त अली तथा अन्य नवाबो ने उठाया, उनका लालच भी अपनी जागीरों को बचाना था न कि धर्म आधारित देश बनाना। जिन्नाह का 11 अगस्त 1947 का भाषण इसका स्पष्ट साक्ष्य है।
बलोचिस्तान 12 अगस्त 1947 को स्वतन्त्र देश बन चुका था और ख़ुद जिन्नाह उसके लिए मुक़दमा लड़ते रहे। जिन्नाह और गांधी के बीच पुनः एकीकरण की कोई गोपनीय सहमति थी लेकिन दुर्भाग्य से दोनो की हत्या हो गई और जो इसके जानकर थे उनकी भी हत्याएं करवा दी गई ( जिन्नाह की बहन, लियाक़त अली खान तथा बहन का विश्वसनीय सेवक)
जहाँ तक मुहाजिरों की स्वीकार्यता का प्रश्न है तो भारत में भी आने वाले पंजाबी गैर मुस्लिम को बराबर का हिन्दू आज भी नही समझा जाता अन्यथा भारतीय जातियां ( बनिये, राजपूत या अन्य ) अपने बच्चों की शादियां पंजाबी समुदाय में करते।
आतंकी संगठनों के बिंदु पर यह पाकिस्तान की स्टेट पॉलिसी भी है और उसका पेंटागन का गुलाम होना भी। यूएस ने अयूब खान से लेकर आजतक अपने प्यादे ही सत्ता में स्थापित किये हैं, जिसने भी आज़ाद होने की कोशिश की उसे मरवा दिया। भुट्टो, बेनज़ीर भुट्टो, ज़िया उल हक इसी कड़ी में मारे गए। हमारे यहां भी श्रीमती इंदिरा गांधी तथा श्री राजीव गांधी को गिन सकते है।
किन्तु अब समय बदल गया है, एमक्यूएम भी दो टुकड़ो में बंट गई हैं और अमेरिका की जगह चीन तथा रूस आ गए है। भाई ( अल्ताफ हुसैन ) हमेशा से ब्रिटिश एजेंसियों की सुरक्षा में रहा है लेकिन अब अप्रासंगिक हो चुका है।
इस से सहमत नहीं हो सकते कि उर्दू भाषी भारतीय मुस्लिम का वर्चस्व नही रहा, 7% होने के बावजूद सत्ता पर यही क़ाबिज़ रहे, ज़िया उल हक, मुशर्रफ और नवाज़ शरीफ़ भी मुहाजिर ही थे। ”

इंटरव्यू का यूट्यूब लिंक

© विजय शंकर सिंह