0

नज़रिया – शिक्षा के बाज़ारीकरण से देश का भविष्य गर्त में जा रहा है

Share

किसी भी राष्ट्र एंव समाज मे शिक्षा अपना विशेष व महत्वपूर्ण स्थान रखती है। राष्ट्र व व्यक्ति के निर्माण में, आर्थिक प्रगति में , सामाजिक नियंत्रण रखने में सबसे पहले शिक्षा की आवश्यकता होती है।
भारतीय संदर्भ में शिक्षा भारत के विकास व सामाजिक उत्थान में कई सौ सालों से अहम भूमिका में रही है। शिक्षा व्यक्ति की समझ का निर्माण करती है उसके लक्ष्यों की पूर्ति के लिए राह दिखाती है। भारत मे शिक्षा ने व्यक्ति की इसी समझ को निखारने का कार्य किया है।
प्राचीन काल से शिक्षा का उद्देश्य मानव की समझ और मानवीय शक्तियों को विकसित करके समाज व राष्ट्र के उत्थान के लिए उपयोगी बनाना था है। भारत मे ब्रिटिश शासन के आने से पहले गुरुकुल के माध्यम से बालक के सर्वांगीण विकास व रूचियों को पहचान कर उसके अनुकूल शिक्षा दिए जाने जी व्यवस्था थी और ऐसी शिक्षा व्यवस्था ही भारत के मज़बूत होने व यहाँ के लोगो के तेज़ बुद्धि होने का कारण थी जिससे ब्रिटिश शासन को यहां शासन करने में मुश्किलें पैदा हुई।
भारत को वैचारिक रूप से कमजोर करने के लिए ब्रिटिश प्रशासन ने यहां की सदियों से चली आ रही शिक्षा व्यवस्था को धराशाही कर दिया व उसके स्थान पर  1835 में लार्ड मैकोले ने नई शिक्षा व्यवस्था की नींव रखी भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली इसी ब्रिटिश प्रतिरूप पर आधारित है। स्कूल, परीक्षा, पास-फैल,  ब्रिटिश प्रशासन द्वारा स्थापित की गई शिक्षा प्रणाली इन्ही शब्दों के आस पास घूमती है और आज तक हम भारतीय भी शिक्षा के नाम पर इन्हीं शब्दों के आस पास घूम रहे है।

भारत के वर्तमान शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य चरित्र निर्माण व मानव संसाधन विकास के स्थान पर सिर्फ मशीनीकरण रह गया है, वर्तमान शिक्षा प्रणाली गैर तकनीकी छात्र- छात्राओं की एक ऐसी फ़ौज तैयार कर रही है जो अंततोगत्वा अपने परिवार, समाज पर बोझ बन कर रह जाती है।

यहां पाठ्यक्रम का गहन विश्लेषण, इसकी मूलभूत दुर्लभताओ को गंभीर रूप से विश्लेषण की चेष्टा न होने के कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था बस पाठ्य पुस्तकों को हर दस वर्ष बदलने के फेर में लगी रहती है और शिक्षा व्यवस्था उसी संकट में फंसी रह जाती है।
जहां यूरोप ,अमेरिका, जापान में साक्षरता प्रतिशत 90-100 के बीच है वहीं भारत मे 2001 में साक्षरता का प्रतिशत 65.38 था। सन् 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति तथा 1992 की मार्च योजना  में 21वीं शताब्दी के प्रारंभ होने से पहले देश मे चौदह वर्ष तक के सभी बच्चो को संतोषजनक गुणवत्ता के साथ निशुल्क व अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए जीडीपी का छः प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना निर्धारित किया गया। भारत की आठवीं पंचवर्षीय योजना में सबके लिए प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य के बारे में प्रमुख रूप से तीन मानदंड निर्धारित किए गए है – सार्वभौम पहुँच, सार्वभौम धारणा, सार्वभौम उपलब्धि।

  • लेकिन ये शब्द सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह गए है देश के कई पिछड़े इलाकों तक आज भी न तो विद्यालय पहुंच पाया है और न ही कोई शिक्षक।
  • शहरी इलाकों में भी विद्यालय व शिक्षकों के होते हुए भी शिक्षा का स्तर काफी अच्छा नही है।

सरकारी एवं निजी स्कूलों के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है। सरकारी शिक्षकों का अपने कार्य के प्रति उत्तरदायित्व न होना व सरकारी उदासीनता ही सरकारी विद्यालयों के पिछड़ने का कारण बनी हुई है। प्रशासनिक तंत्र में व्यापक भ्रष्टाचार जिसके कारण विद्यालयों में उपयोगी सामान व उचित आहार नही पहुंच पाता,  देश की शिक्षा व्यवस्था की बदहाली का एक अन्य मुख्य कारण है।

भारत मे शिक्षा , शिक्षा न होकर पढ़ाने वालों के लिए व्यापार व पढ़ने वालों के लिए नोकरी प्राप्त करने का एक साधन मात्र बनकर रह गई है। भारत मे माध्यमिक स्तर के शिक्षा संस्थान 7416 से बढ़कर 1.10 लाख होना, माध्यमिक स्तर पर पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या 13.3 प्रतिशत से 37.1 तक आना , 11,100 कॉलीजो में 74.18 लाख छात्रों का पढ़ना, यह आकंड़े शिक्षा व्यवस्था के एक सकारात्मक पक्ष को जरूर दिखाते है लेकिन भारत मे जितना विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा व प्राविधिक शिक्षा का स्तर बढ़ा है उतना ही प्राथमिक शिक्षा का आधार दुर्बल होता गया।

भारत मे 1854 से ब तक 13  से अधिक आयोगों ने शिक्षा व्यवस्था को लेकर गहन विश्लेषण कर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है कुछ को लागू भी किया गया है पर क्रियान्वयन का भारतीय तरीका किसी भी नीति, योजना को सफल नहीं होने देता।

भारत की पहली पंचवर्षीय योजना में शिक्षा का बजट 153 करोड़ था जो नोवीं पंचवर्षीय योजना तक आते आते 20,382.64 करोड़ हो गया।  शिक्षा पर इतनी मात्रा में धन का व्यय हमारी शिक्षा के प्रति वचनबद्धता को तो दर्शाता है पर शिक्षा के बाज़ारीकरण के दौर में भारत की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगिकता पर सवाल उठना लाज़मी है, क्योंकि भारतीय शिक्षा व्यवस्था  के द्वारा पढ़े लिखे युवाओं की ऐसी बिसात जमा हो रही है जो पढ़े लिखे तो है पर मानसिक ,वैचारिक एवं सांस्कृतिक रूप से पूरी तरह परिपक्व नहीं है।

मानवीय जागरूकता, संवर्दनशीलता जो प्राचीन भारतीय शिक्षा नीति का आधार रहा है उससे आज हम कोसो दूर है। क्योंकि प्राचीन भारतीय शिक्षा का स्वरूप भारतीय लोगो के विचारों, मान्यताओं, संस्कृति , आदर्श, वातावरण, विकास की तीव्रता,  सोचने समझने की शक्ति, के अनुकूल निर्धारित किया गया था जब तक हम वर्तमान शिक्षा प्रणाली में प्राचीन शैक्षिणिक गुणों को नहीं सम्मिलित करते तब तक इन मापदंडों तक पहुँचना हमारे लिए बेहद मुश्किल है।