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कविता – मुलाकात: खुद की खुद से

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मैं एक बात कहना चाहता हूँ।
जन्मान्तरों की हमारी यात्रा है।
पिछले किसी मोड़ पर कभी न कभी कहीं न कहीं हमारा कोई न कोई रिश्ता जरूर रहा होगा।
ये हमारे सामूहिक अचेतन मन की अँधेरी परतों की आवाज थी जिसने हमें आज इस पड़ाव पर एक दूसरे से मिलवा दिया।

अस्तित्व में कुछ भी अकारण नहीं होता।
सभी चीजें कार्य-कारण सिद्धांत से जुडी हैं।
हम भी उसी विराट दीपमालिका के छोटे टिमटिमाते दीये हैं।
हमारी भीतरी रौशनी की शिद्दत हमें खींच लाई और अचेतन की उन्ही अँधेरी खाइयों में उमड़ते अजाने सैलाब ने हमारे चेतन मन को भी झिंझोड़ दिया था।
हिल हिल कर ही सही मगर हमने एक पूरी मुलाकात को अपनी मौजूदगी की गवाही दे डाली।
हम स्वयं से ही मिले और स्वयं में ही खो भी गए।
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मिला कौन?

और मिला किससे?

मिले हम
और मिले खुद से।

स्वयं से कितनी दूरी बना ली है हमने।
भूल ही गए हैं खुद को।

यह उन्हें एक पागल का प्रलाप सा लगे तो लग सकता है मगर हमारे भीतर भी कहीं न कहीं अनगिनत हम और अनगिनत हमारे छिपे हुए हैं।

संयोग से या दैवयोग से…

कभी-कभार हम हमारे किसी टुकड़े से मिल बैठते हैं।
वही हमारी होली भी होती है और वही हमारी दिवाली भी।

काँप उठते हैं हम।
जैसे पूर्णिमा की रात समंदर की छाती काँपती है।
मिलन के सुख को झेल पाना कितना कठिन होता है।

सब हमारी बात नहीं समझ सकते।
हम खुद भी नहीं समझ पा रहे हैं और रह रह कर समझने की नाकाम कोशिशें करते जा रहे हैं।

बात यह समझने समझाने की है भी नहीं। यह बात तो जीने की है।
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एक मुलाकात।
अपने भीतर
निरंतर बह रही
रूह की आवाज से।
कभी कभी
ऐसे भी क्षण आते हैं
जब आप
अपने से ही
एक प्यारी सी मुलाकात
कर पाते हैं।
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दो चार लम्हे…
मुलाकात के,
चार मीठे बोल,
बिन बात के,
थोड़ी सी हँसी
और जरा सा मुस्कुराना,
थोड़ी सी झिझक
और थोड़ा सा…
शर्मा से झुक जाना,
थोड़ी सी दोस्ती
और थोड़ा सा फ़साना,
ज़िन्दगी के सारे ग़मों का
बस यूँ ही रुखसत हो जाना,
वक़्त का थम जाना
और साँसों का ठहर जाना…
बस यूँ ही-
दो चार लम्हों का
सदियों सा गुजर जाना…
ज़िन्दगी की अजीब सी रंगत
रूह में उतर आना,
और फिर…
उन ताजे मीठे लम्हों का
कभी न मिट पाने वाली
एक ख़ूबसूरत सी याद बन जाना।
शायद यही
वह है,
जो हममें भी है
तुममें भी है।
वैसे तो यह सबमें है
कुछ यूँ ही…
कुछ ऐसा ही…
फर्क सिर्फ इतना है
कि हमने उन लम्हों को पीया है,
उन यादों को जिया है,
और सबने उसे
दूर, बहुत दूर से…
अपनी अजनबी आँखों के
धूमिल नजरिये से
देखा किया है।
: – मणिभूषण सिंह