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नन्दीग्राम और सिंगूर , ममता की राजनीति के दो निर्णायक फ़ैसले

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ममता बनर्जी एक करिश्माई नेता है और इस बात को होने में या करने में वक़्त लगता है इस वक़्त में स्ब्बसे ईमानदारी से और संघर्षशील होकर ज़मीनी स्तर पर काम करने की शुरुआत ममता बनर्जी ने की और उसी के बाद फर्श से अर्श तक का सफर किया है | इसे करने में ममता ने जो काम किया उसने ही उन्हें एक परिपक्व नेता बनाया आज उनके जन्मदिन पर उनकी इन चीजों को याद किया जाना ज़रूरी है |
यही बात तब अहम हो जाती है जब आप ज़मीनी संघर्ष कर रहें है | ममता को कुछ भी थाली में सजा नही मिला उन्होंने हासिल किया | ममता बनर्जी जो अपने उग्र और तेज़ तर्रार रवय्ये की वजह से बदनाम थी उसे उन्होंने कभी बदला नही और यही वजह रही की सरकारें और हालत बदलें मगर ममता नही,ममता बनर्जी ने 1998 में अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का गठन किया और अच्छी शुरुआत के बाद ये दल कमज़ोर आने लगा और भाजपा के साथ और कभी कांग्रेस के साथ जा जाकर ममता कमज़ोर होती नजर आई और कई राजनितिक आंकलन करने वालों ने उनके खत्म होने की बात तक कह दी | लेकिन ममता ने मौका ढूँढा और वो उन्हें मिला भी गया |
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30 साल सत्ता में गुज़ार चुकी सीपीआई ने अपनी नीतियों से हट कर ओद्योगिक घरानों को पश्चिम बंगाल में जगह दी और रत्न टाटा के नैनो प्रोजेक्ट को हामी देते हुए सिंगूर में किसानों की ज़मीन के अधिग्रहण की हामी देदी बस यह बात थी और ममता ने मोर्चा सम्भाल लिया और ज़मीन की लड़ाई शुरू कर दी इसके लिए उन्होंने तमाम किसानों के हमदर्द की तरह खुद को पेश किया और इसी को मद्देनजर रखते हुए ममता बनर्जी अनशन पर बेठ गयी और पुरे छब्बीस दिनों तक चले इस संघर्ष ने ममता को लोगों के करीब कर दिया |
ममता बनर्जी ने बंगाल के हर एक वर्ग किसान,पिछड़े,गरीब और अल्पसंख्यक वर्ग को जोड़ने की नीति पर अपने इस कदम को देखा यही वजह रही की सिर्फ सिंगूर में हुई ज़मीन अधिग्रहण के मुद्दे के अलावा नंदीग्राम में हुई केमिकल हब लगाने के लिए हुई किसानों की आवाज़ के साथ खड़े होने का फैसला किया और ज़मीनी स्तर पर एक विकल्प देकर लेफ्ट के खिलाफ माहोल बनाया और इसी कड़ी में हिंसा में मारे गये लोगों और तमाम जनता को भरोसा दिलाया की हाँ वो 34 साल से चली आ रही हुकुमत को “परिवर्तन” के नारे के साथ खत्म कर सकती है |इसमें सबसे अहम रहा सिंगूर और नंदीग्राम का मुद्दा जिसे ममता ने तरीके से उपयोग किया |
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जेसा उन्होंने सोचा था वेसा ही हुआ ममता ने बंगाल के 2011 विधानसभा चुनावों में प्रचंड बहुमत हासिल कर लेफ्ट के किले को ढहा दिया और तृणमूल कांग्रेस सत्ता में आई हालाँकि ये जीत कांग्रेस के साथ थी मगर आने वाले लोकसभा चुनाव और फिर विधानसभा अकेले जीत कर सत्ता में आकर दिखा दिया और ये सब सिर्फ अपने आप किया ये दिखाता है की ममता एक परिपक्व नेता है जो अपने मुद्दों और जुबान पर आवाज़ उठा कर और लड़ “नेता” बन सकती है |
लेकिन असल इम्तेहान अभी बाकी है जो 2019 का लोकसभा चुनाव है और अगर ममता अपने रवय्ये के साथ अगर लोकसभा चुनावों में एक बड़ी जीत हासिल कर पायी तो भाजपा विरोधी दल उन्हें जगह दे सकतें है या नहीं ? लेकिन ये बात अभी भविष्य की गर्त में है देखना है क्या होगा

असद शैख़
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