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नज़रिया- क्या मुस्लिम समुदाय की आवाज़ उठाना गुनाह हो गया है?

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ये तस्वीर अक्सर आपने सोशलमीडिया में देखी होगी, अक्सर इस तस्वीर को पोस्ट करके ये दावा किया जाता है. कि हैदराबाद सांसद बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी भाजपा से मिले हुए हैं. अब आप समझ सकते हैं, इस तरह की पोस्ट कौन हजरात किया करते हैं.

क्या कोई सांसद किसी केन्द्रीय मंत्री से अपने क्षेत्र के कार्यों के लिए मुलाक़ात नहीं करता. ऐसी कितनी ही फोटो हैं जिसमे दिग्विजय सिंह भाजपा नेताओं के साथ आपको नज़र आयेंगे. एक तस्वीर में मोदी और दिग्विजय सिंह का मिलन आपो देख लेंगे तो आपको लगेगा कि ये लोग किस तरह नूर कुश्ती को अंजाम देते हैं.
वहीं लालू यादव से लेकर मुलायम और अन्य भाजपा विरोधियों की भाजपा के शीर्ष नेताओं के साथ तस्वीरें मौजूद हैं. तो क्या मान लिया जाए, कि ये एक साज़िश के तहत एक दुसरे का विरोध करते आये हैं. अंदर से सब मिले हुए हैं.

दिक्कत ये है, कि एक सांसद जो मुस्लिम समुदाय की आवाज़ संसद में बना हुआ है. मुस्लिम युवाओं का उस ओर झुकाव देखकर उन दलों के माथे में पसीना आ जाता है. जो संघ और भाजपा का डर दिखाकर मुस्लिम समुदाय का वोट तो लेते आये हैं. पर उनकी कायादत की पुरजोर मुखालिफ़त भी उन्होंने की है.
आप उनसे सवाल कीजियेगा, कि आप सेकुलरिज्म के अलमबरदार हैं, तो एक समुदाय के अंदर नेतृत्व पैदा होने का विरोध क्यों करते हैं ? आप खुश होते हैं अगर आपको कोई आदिवासी नेतृत्व उठता नज़र आता है. आप पटेलों के अन्दर पैदा होने वाले नेतृत्व से खुश होते हैं, जाटों और गुराज्रों से लेकर दलित एवं पिछड़ा वर्ग में उठने वाले नेत्रित्व से भी आपको समस्या नहीं है. आपको समस्या है, तो मुस्लिम समुदाय के अन्दर खड़ी होने वाली कयादत से.
दरअसल ये मामला ओवैसी तक ही सीमित नहीं रह जाता, ये मामला असम में बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से लेकर, SDPI और दक्षिण भारत में सक्रीय इन्डियन यूनियन मुस्लिम लीग तक एक सा नज़र आता है.
आपको समस्या इस बात से है, कि मुस्लिम समुदाय अपनी राजनीतिक कयादत को मज़बूत कर रहा है. इसलिए तो सिर्फ इन पार्टियों नहीं बल्कि सेकुलर पार्टियों के अन्दर भी मुस्लिम कयादत को ही निशाना बनाया जाता है. फिर चाहें सलमान खुर्शीद हों या आज़म खान या फिर अबू आसिम आज़मी. आपको समस्या है इनके मुसलमान होने से. मैं ये जो कह रहा हूँ ऐसे ही नहीं कह रहा हूँ. मैंने पिछले 7 साल की राजनीतिक ख़बरों और घटनाओं का अध्यन किया है. संघ और फासीवादी विचारधारा के विरुद्ध मुखर रहने वाले राहुल गांधी को सॉफ्ट हिंदुत्व की राह दिखाते कांग्रेसियों पर गौर किया है. हर चुनाव के पहले टीवी चैनल्स में चलने वाली डीबेट्स में मुख्य समस्या बने “मुस्लिम समुदाय” पर गौर किया है.
उत्पीडन के मुद्दों पर अगर किसी मुस्लिम नेता ने कुछ कहा है, तो उस पर दी जाने वाली प्रतिक्रियाओं पर गौर किया है. उन गैर मुस्लिम नेताओं पर भी गौर किया है, जो वाकई सेकुलर हैं, और मुस्लिम ही नहीं सभी समुदायों के साथ होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं. पर जब उन्होंने मुस्लिमों के साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ जुबां खोली तो वो भी भाजपा को फ़ायदा पहुंचाने वाले करार दे दिए गए.
कुछ दिन पुराना ही मामला है, जब कांग्रेस नेता और पूर्व विदेश व क़ानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने एक सवाल के जवाब में कहा था, कि कांग्रेस के दामन में मुस्लिमों के खून के दाग हैं. मैं इसे स्वीकार करता हूँ. उन्होंने वही कॉमन बात की थी जो सत्य है. पर उन्हें इस बयान के बाद भाजपा और संघ का एजेंट बताया जाने लगा. ये कहा जाने लगा कि ये भाजपा को फायदा पहुंचाने वाले लोग हैं. जबकि कांग्रेसियों को चाहिए था, कि वो अपनी पुरानी गलतियों के लिए देश के मुस्लिम समुदाय से माफ़ी मांगते. पर हुआ इसका उल्टा, वही बात कि भाजपा आ जायेगी.
तो क्या मुस्लिमों पर जो भी अन्याय हो, उस पर मुस्लिम समुदाय को चुपचाप बैठ जाना चाहिए. क्या उन्हें हक नहीं कि वो आवाज़ उठायें. क्या मुस्लिम सांसद इस बात का हक नहीं रखते कि वो अपने समुदाय के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सरकार और उसके मंत्रियों से मुतालिबा करें.
मैं कह रहा हूँ, कि देश कि मानसिकता ऐसी बना दी गई है. कि अगर आपने मुस्लिम समुदाय के मुद्दे उठाये. आपने उनके हक की बात की तो उसके तुरंत बाद आपको भाजपा का एजेंट घोषित कर दिया जाता है. आपको संघ की शाखा का माल घोषित कर दिया जाता है. हालांकि ये अलग बात है, कि कई भाजपा विरोधी होने का दावा करने वाले लोग बंद दरवाज़े में संघ के नेताओं के पैर पड़ते हैं और मौका पड़ने में संघ से वफादारी दिखाने के लिए कई ऎसी गतिविधियों में संलिप्त पाए जाते हैं, जो कम से कम एक सेकुलर नेता को अंजाम नहीं देना चाहिए.
अब आप खुद तय कीजिएगा, कि क्या मुस्लिम समुदायों के साथ आये दिन होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ न उठाई जाए ?