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नज़रिया – क्या हर समुदाय रिज़र्वेशन में अपना विकास ढूंढ रहा है ?

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पिछले कुछ समय से भारत में अशांति का माहौल पनपता जा रहा है। देश के अलग अलग हिस्सों से दो तीन सालों से सामाजिक आंदोलन के खबरें बढ़ रही है इसी कारण सामाजिक टकराव भी बढ़ रहा है इन आंदोलनों की पीछे कहीं न कहीं रिजर्वेशन की मांग की मांग छुपी हुई है, हर समुदाय रिजर्वेशन की आड़ में विकास की संभावनाएं तलाश रहा है जिस कारण एक बार फिर रिजर्वेशन भारत के लिए एक संवेदनशील विषय बनता जा रहा है।
रिजर्वेशन हर पिछड़ी जाति ,समुदाय के लिए हासिल करने का एकमात्र लक्ष्य बन गया है सिर्फ यही है जो उन्हें गरीबी, राजनीतिक अवहेलना से बाहर निकल सकता है। लेकिन पिछले कुछ समय से भारत में रिजर्वेशन सिर्फ पिछड़ी हुई जातियों का ही मुद्दा नही रह बल्कि सम्पन्न समझी जाने वाली जातियाँ भी इसके लिए लड़ाई लड़ रही है।
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ये वही जातियाँ है जो अपने अपने इलाको में सबसे प्रभावी रही है चाहे गुजरात मे पटेल समुदाय हो या हरियाणा में जाट ये अपने राज्य में सबसे प्रभुत्व वाली जाती मानी जाती थी। लेकिन इन दिनों ये रिजर्वेशन के लिए सड़कों पर है इन सभी प्रभुत्व वाली जतियों ने यह मांग इसलिए उठाई क्योंकि ये मानते है कि वे समाज मे कमतर ,कमजोर हुयर है। इसका कारण है कि दूसरी जातियों को रिजर्वेशन मिलता चला गया।ऐसे में यह समझना होगा कि इनका रिजर्वेशन वास्तव में रिजर्वेशन की  मांग न होकर रिजर्वेशन के विरोध में है।
हालांकि ऐसा साफ तौर पर नही स्वीकार किया गया लेकिन यह सच्चाई हैं कि समाज की ये प्रभावशील जातियाँ अपने लिए समानांतर मौके चाहती है ।
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नब्बे के दशक में पिछड़ी जातियों द्वारा मंडल कमीशन की मांग के समय देश में जिस प्रकार का माहौल था देश में इन दिनों उसी से मिलता जुलता माहौल बनने के आसार हो रहे है। तब सवर्णो ने आरक्षण का विरोध किया था परंतु अब सवर्ण खुद रिजर्वेशन के लिए आंदोलनरत है नब्बे के दशक में जो राजनीतिक दल पिछड़ो के लिए आंदोलन करने सड़क पर उतरे थे उनमें से अधिकतर सवर्ण रिजर्वेशन की मांग का भी समर्थन कर रहे है।कुछ राज्यों में इनके लिए रिजर्वेशन की संभावनाएं तलाशने के लिए सवर्ण कमीशन तक का गठन हो चुका है।
भारत में आरक्षण का मुद्दा राजनीतिक व कानूनी रूप से जोखिम भरा रहा है इसी कारण इस समय एक कदम आगे ,दो कदम पीछे वाली स्थिति बनी हुई है। कोई भी राजनीतिक दल जोखिम भरे मुद्दे के भीतर जाने से पहले भली प्रकार सोचता है यह जोखिम भरी राह सियासत को गिराने – उभारने का काम करती है इसी वजह से अब तक कई बार हल की उम्मीद दिखते हुए भी रास्ता न निकल सका।
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ऐसा नहीं है की जाति को लेकर ये जंग हाल ही में शुरू हुई है यह लगातार चल रही है और इतनी जल्दी समाप्त होने की भी आसार नही लगते।
लोकतंत्र में सुविधाओं का बंटवारा ही जातिय रहा है रिजर्वेशन के बाद यह बंटवारा और साफ नजर आने लगा।रिजर्वेशन व जातियों के नए सिरे से हक़ मांगने की लड़ाई से समाज और जातिय संतुलन को नई दिशा मिली।यह नए सिरे से परिभाषित हुए यही कारण है हर जाति इस संतुलन को अपने पक्ष में करनेकी कोशिश हर रही है।
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जातीय आंदोलन की आवाज़ अब इसलिए तेज़ सुनी जा रही है क्योंकि इसे माँगेंने वाले अपने अपने समाज मे प्रभावशाली मुकाम रखते है। रिजर्वेशन मांगना ही इसका एकमात्र लक्ष्य नहीं है ये राजनीतिक हिस्सेदारी में भी मजबूत हिस्सा चाहते है।
भारत के सामाजिक माहौल में इस समय बस जातिगत होड़ ही नज़र आती है जब समाज मे रिजर्वेशन को लेकर ऐसी होड़ मची हो तब समाज दिशाहीन होने लगता है जब लोग रिजर्वेशन की होड़ में खड़े होते है तब वह अपने भीतर की खूबियों को छुपाने लगते है और जाति के नाम पर कुछ पाने की चाह में लग जाते है वास्तव में कुछ लोग समाज को देना नही बल्कि उससे लेना ही चाहते है ये बात अलग है कि जाति के नाम पर होने वाले आंदोलनों के फायदा कुछ राजनीतिक लोग ही उठा पाते है।
नए सिरे से रिजर्वेशन के मुद्दे पर उठे आंदोलन का हल क्या हो सकता है या क्या होगा इसका निर्णय सरकार कर विवेक और इकबाल पर निर्भर करता है वरना आने वाले दिनों में ‘जाति की जिद’ के आगे बढ़ने की आशंका बनी रहेगी।