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नज़रिया – जनता को बेवकूफ़ बनाती हैं राजनीतिक पार्टियां

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हमारे संविधान में दिए गए प्रावधानों के अनुसार, हमें पांच साल बाद चुनाव कराने होते हैं। 1952 से इस रिहर्सल का बार-बार दोहराया गया है। राजनीतिक लोग आपस में सहयोगी व एक ही सोच के हैं। उन्होंने राजनीति जिसको कभी समाज सेवा का रूप माना जाता था, को अपना व्यवसाय, पार्टी व टीम बना एक लक्ष्य “चुनाव में जीत” का रूप बना दिया है और वे लोग इस सेवा को अपने एक सुसज्जित व अनेक प्रकार से सुविधजनक दफ्तर में बैठ कर करना पसन्द करते हैं।
चुनाव इनके लिये फ्रेंडली मैच है। केंद्र से लेकर राज्य, यहां तक धार्मिक स्थल व कॉलोनी की कमेटियां उसी लाइन पर काम कर रही हैं। जहां अंग्रेज हुकूमत ने इसे छोड़ दिया था, पर इस देश से हटाए जाने के बाद इस राजनीति के नियमों में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया जा सका है। हमारे संविधान के निर्माता भी परिवर्तन पक्ष में थे। राजनीतिज्ञों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रशिक्षण, अनुभव, विशेषज्ञता आदि के नियमों का निर्धारण नहीं किया गया था। पर हमारे देश की आज़ादी के बाद का इतिहास की लिखतों से पता चलता है, कि कुछ परिवार और कुछ व्यक्तिगत स्वंयसेवी, संविधान निर्माताओं के चारों ओर चिपके लोगों ने इकट्ठा हो सिर्फ ‘हां’ की राजनीति व पुरुष प्रधान की व्यवस्था को बनाये रखना ठीक समझा।
वास्तव में इन परिवारों के लोग और व्यक्तिगत स्वयंसेवियों ने हमारे ऊपर शासन रहा है। इन्होंने कभी भी सरकारी ख़ज़ानों, राजनीतिक पार्टी फंडों से बने घर व दफ्तरों का सही इस्तेमाल करने का रूल या एजेंडा पारित करने की कोशिश नहीं की। जनता को दिखाने के लिए रखे जाने वाले दरबार कुछ छोटे घरों में, पार्कों में , केवल छोटे मामलों के लिये ही दिखाए जाते रहे हैं।
मानते हैं कि देश में वास्तविक लोकतंत्र भी स्थापित किया गया है। हमने इन खानापूर्तियों दोनों ही प्रमुख दलों में देखा है। वे हमारे सामने सार्वजनिक तौर पर अब तक के सभी एक-दूसरे के काम की निंदा करते रहे हैं, पर व्यक्तिगत समारोह में एक दूसरे को बुला, गिफ्ट सहित हाथ से हाथ मिला, गले मिल इकट्ठे भोजन, व कॉकटेल पार्टी करते हैं।
इसका अर्थ स्पष्ट है कि इस देश के लोगों के हित व समाज सुधार के लिए कुछ भी नहीं किया गया है। कहा जाता है कि 2019 के चुनावों में बदलाव आएगा, अब और कुछ ऐसा नहीं होगा। यदि हम इस चुनाव से बचते हैं तब भी पांच साल के दूसरे कार्यकाल को भी छतीस प्रकार के भोजन की थाली में सजा कर देने वाला जैसा काम है। सब चलता रहे इस लिए वर्तमान सेट देते हैं, तो भी देश और उसकी जनता को कुछ भी नहीं नया नहीं मिलेगा।
ये चुनाव कुछ भी नया नहीं लाएगा और केवल पुरुष बदल सकते हैं। इस व्यर्थ की प्रैक्टिस के लिए, हमें निंदा करना चाहिए जो कि बहुत मुश्किल है। अगली सरकार से कुछ भी नई उम्मीद नहीं है।