वैद्यनाथ मिश्र आखिर कैसे बन गए “बाबा नागार्जुन”?

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“रोटी हक की बातें जो भी मुंह पर लायेगा

कोई भी हो निश्चय ही वो कम्युनिस्ट कहलाएगा।”

जनकवि बाबा नागार्जुन की ये पंक्तियां आज भी उतनी ही सत्य हैं, जितनी उस समय थीं। जब बाबा नागर्जुन ने इन पंक्तियों की रचना की थी। बाबा नागार्जुन का जन्म बिहार के मधुबनी में हुआ था। 30 जून 1911 को जन्मे बाबा नागर्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था। गरीबी और अभाव में जीवन बताने वाले बाबा अपने पिता के छः बेटों में से इकलौते जीवित बचे थे। बाबा नागार्जुन की माता का निधन 5 वर्ष की उम्र में ही हो गया था। बाबा नागार्जुन जब तक जिये, तब तक जनहित के लिए लिखते रहे। जनकवि के तौर पर जनता ने भी उन्हें सरमाथे पर बिठाया।

अधिक न पढ़ सके नागार्जुन

नागार्जुन के पिता जी किसान और पुरोहित थे। आस-पास के गांवों में कथा, हवन और पूजा कराकर घर के आर्थिक ज़रूरतें पूरी हुआ करती थीं। लेकिन आर्थिक तंगी के कारण नागार्जुन की औपचारिक पढ़ाई ज्यादा नहीं कर पाए। उन्होंने जो भी सिखा अपने अनुभवों और जीवन से सीखा। हालांकि उनका प्राथमिक शिक्षण संस्कृत भाषा में हुआ था।

मेला देखने गए और हो गई शादी

नागार्जुन का विवाह 19 साल की उम्र में अपराजित नाम की लड़की से हुआ। उनके विवाह का किस्सा भी काफी दिलचस्प है। दरअसल, नागार्जुन अपनी मौसी के गांव एक मेला देखने गए थे। इसी दौरान उनके पिता और मौसी ने मिल कर एक लड़की देखी और नागार्जुन का विवाह सुनिश्चित कर दिया। उसके बाद नागार्जुन को सिर्फ बता दिया गया कि आपकी शादी इस लड़की से तय हो गई है। आपको इनका दूल्हा बनना है।

लोगों को चिढ़ाने के लिए की लिखने की शुरआत

एक इंटरव्यू में जब बाबा नागर्जुन से पूछा गया कि आपने लिखने की शुरुआत कैसे की? तो उन्होंने कहा, “पहले हम गुमसुम रहते थे। ज्यादा बोलते नहीं थे। फिर हमको छंदों के बारे में ज्ञान होने लगा और हमने लोगों को चिढ़ाने के लिए थोड़ा लिखना शुरू कर दिया। परंतु बाबा नागर्जुन ने औपचारिक लेखन 1945 से शुरू की थी।

बाबा ने नेहरू की मुखर आलोचना की

आजादी से पहले बाबा नेहरू के समर्थकों में से एक थे। लेकिन जब नेहरू ने इस देश की बागडोर संभाली, तो बाबा नेहरू के मुखर आलोचक हो गए। आजादी के बाद जब इंग्लैंड की महारानी भारत दौरे पर आईं, तब बाबा ने नेहरू की नीति पर तंज कसते हुए “आओ रानी हम ढोएंगे पालकी लिखी थी।”

जेलों में भी बीता जीवन

बाबा नागर्जुन में सामाजिक सरोकार की एक अजीब सी बैचेनी थी। उनका सपना था कि इस देश में हर गरीब को 2 वक्त का भोजन और तन ढकने के लिए कपड़ा मिलना चाहिए। फिर चाहें सरकार या विचारधारा किसी की भी हो। लेकिन जब बाबा के इस सपने को पूरा करने में हर सरकार नाकाम रही, तब नागार्जुन ने सरकार के खिलाफ राजनीतिक मोर्चे पर भी सीधी बगावत की।

इसी के चलते 1939 में बाबा की मुलाकात सहजानंद सरस्वती और सुभाषचंद्र बोस से हुई। जिसके बाद उन्होंने छपरा में किसानों के आंदोलन नेतृत्व किया और हजारीबाग के उसी जेल में बंद रहे, जहां आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण को भी रखा गया था।

यही नहीं, आपातकाल के समय जब इंदिरा के खिलाफ कोई एक शब्द बोलने को भी हिमाकत नहीं कर पा रहा था, तब नागार्जुन लिखते हैं

क्या हुआ आपको? क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को?
इंदू जी, इंदू जी क्या हुआ आपको?

ऐसे बने वैद्यनाथ से बाबा नागर्जुन

आमूमन लेखक या कवि उसी नाम से मशहूर होता है, जिस नाम से उसकी रचनाएं छपती हैं। लेकिन नागार्जुन के साथ ऐसा नहीं हुआ। वो बांग्ला, मैथली और हिन्दी भाषा में लिखा करते थे। पहले वो मैथिली की रचनाओं में अपना नाम यात्री लिखा करते थे। परंतु 1935 में अध्यापक के तौर पर सहारनपुर में नौकरी करने के बाद वह श्रीलंका चले गए। और हिंदू धर्म की रूढ़ियों से निराश होकर उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी। वहीं से उन्हें नागार्जुन नाम मिला। और उनकी रचनाओं से प्रभावित होकर पाठक उन्हें “बाबा” बुलाने लगे। आज भी वैद्यनाथ बाबा नागार्जुन के नाम से जाने जाते हैं।

घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे बाबा

नागार्जुन श्रीलंका से आने के बाद कभी अपने गांव में टिक कर नहीं रहे। एक यायावर का जीवन बिताया। एक टीवी इंटरव्यू के दौरान बाबा नागर्जुन एक किस्सा बताया था। वो बताते हैं कि एक उनकी पत्नी से किसी ने पूछा आप दोनों कभी साथ रहें हैं? तब उन्होंने जवाब दिया कि “जिसको बहत्तर चूल्हे का खाना मुंह लगा हो, वो कहां घर में टिकेगा।”

अपनी ही जमात के लोगों ने की निंदा

अपनी ही बिरादरी के लोगों से नागार्जुन को निंदा और नीची नजरों से देखा गया। दरअसल नागार्जुन अपना मेहनताना मांगने में कभी नहीं हिचकते थे, खुल कर अपना मेहनताना मांगते थे। और बाकी साहित्यकार उनके पीठ पीछे इस बात की निंदा किया करते थे। हालांकि बाबा नागार्जुन के बारे में यह एकतरफा राय थी। जो उनके एक व्यक्ति के लिहाज से काफी अन्यायपूर्ण थी। और फिर, कोई भी लेखक किसी गोष्ठी या समारोह में तफरीह करने तो नहीं जाता। आखिरकार उसका भी एक जीवन है, और साथ ही कुछ मूलभूत सुविधाएं, जो सभी को पूरी करनी होती हैं

लेकिन अफसोस बाबा नागार्जुन का अंतिम समय भी दुखों और आभावों में ही गुजरा। और 11 नवंबर 1998 के दिन वो दुनिया से अलविदा कह कर चले गए।