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चुनावी नतीजे, विपक्ष के लिए कड़ा सबक

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परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हर क्षेत्र में बदलाव होता है। राजनीति भी इससे अछूती नहीं। 2014 में किसी ने उम्मीद नहीं लगाई थी कि 70 साल से केंद्र में पूर्ण बहुमत के लिए भटक रही भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत से भी ज्यादा 340 सीटें जीतकर विपक्ष को मटियामेट कर देगी। नरेंद्र मोदी का अश्वमेघ रथ जारी है और उसने उत्तर प्रदेश में 325 सीटें जीतकर 2014 को दोहरा दिया है। इस जीत के आखिर मायने क्या हैं? नोटबंदी के ऐतिहासिक फैसले के बाद लगा था कि नरेंद्र मोदी ने बहुत बड़ी भूल कर दी है, जिसका खामियाजा उन्हें आने पांच राज्यों के चुनाव में उठाना पड़ेगा। लेकिन कई प्रदेशों में हुए नगर निकाय चुनाव में भाजपा की प्रचंड जीत ने बताया कि नोटबंदी का असर नकारात्मक नहीं, सकारात्मक हुआ है या फिर यह कोई मुद्दा ही नहीं है। लेकिन भाजपा विरोधी लोग इसे यह कहकर झुठलाते रहे कि नगर निकाय चुनाव निहायत की स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं, विधानसभा चुनावों में इसका असर जरूर होगा। बैंकों के एक सीमा के बाद ट्रांजेक्शन शुल्क लगाना, गंगा का साफ होने के बजाय उसका और ज्यादा मैली हो जाना ही नहीं, बल्कि कई जगह उसमें कीड़े पड़ जाने की खबर, काशी को क्योटो बनाने की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ाना, स्मार्ट सिटी बनाने की योजना का फ्लॉप हो जाना। बुलेट ट्रेन का अभी कहीं अता पता नहीं होना, सांसदों द्वारा गोद लिए गांवों का विकास न होना, महंगाई कम होने के बजाय बढ़ना, दालों की कीमतें दोगुनी हो जाना। सबसे बड़ी बात हर साल दो करोड़ रोजगार देने का वादा, लेकिन बेरोजगारी का बढ़ते जाना। ये कुछ ऐसे मुद्दे थे, जिनसे यह लगता था कि केंद्र सरकार में आने से पहले जो वादे किए थे, वे पूरे नहीं हो सके हैं, इसलिए जनता उत्तर प्रदेश में भाजपा को नकार देगी। उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार का ‘काम बोलता है’ स्लोगन और कांग्रेस से गठबंधन के बाद लगता था कि भाजपा को टक्कर मिलेगी। और वह इतनी सीटें लाने में कामयाब नहीं होगी कि अपने बल पर सरकार बना सके। लेकिन जो हुआ, वह सामने है। अब सवाल यह है कि जब मोदी ने जो वादे किए, वे पूरे नहीं हुए। कई मोर्चों पर सरकार फेल रही है। अभी मोदी सरकार का कोई बड़ा ऐसा काम सामने नहीं आया है, जिससे लगे कि देश बहुत तेजी के साथ तरक्की करने लगा है। फिर मोदी लहर क्यों जारी है? इसके कई कारण हैं। अभी एक वर्ग ऐसा है, जो गरीब है और सोचता है कि अगर मोदी को मौका दिया जाए तो वह गरीबों के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। इसके अलावा मोदी और शाह की जोड़ी ने बहुत ही चालाकी से हिंदुत्व का जो कार्ड खेला है, वह कामयाब रहा है। मेन स्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से संघ परिवार यह धारणा बनाने में कामयाब रहा कि भाजपा ही देशभक्त है, राष्ट्रवादी है। भाजपा विरोधी देश के दुश्मन हैं। चुनाव प्रचार के दौरान धु्रवीकरण की धार को तेज करने के लिए पूरा संघ परिवार लगा रहा। इसके लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया गया, उन्हें बार बार दोहराने की जरूरत नहीं है। नरेंद्र मोदी की जीत में सबसे ज्यादा योगदान विपक्ष का बिखराव और मुसलिम वोटों का सपा और बसपा के बीच बंटवारा होना रहा। बसपा का 100 के लगभग मुसलमानों को टिकट देना बसपा के लिए अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारना सरीखा रहा। बिहार में अगर भाजपा नहीं जीत सकी थी तो इसका श्रेय नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस को जाता है, जिन्होंने एक दूसरे का धुर विरोधी होने के बावजूद महागठबंधन बनाया था। उत्तर प्रदेश में ऐसे ही गठबंधन की जरूरत थी। अगर ऐसा हो जाता तो चुनाव परिणाम बहुत जुदा होते, बिल्कुल बिहार सरीखे। उदाहरण के लिए हम मेरठ जनपद की सीटों पर पड़े वोटों का आकलन करें तो तस्वीर कुछ यूं सामने आती है। मेरठ दक्षिण सीट पर विजयी भाजपा उम्मीदवार सोमेंद्र तोमर को 1,13, 225 वोट मिले। बसपा के याकूब कुरैशी को मि
ले 77, 830, तो गठबंधन के आजाद सैफी को मिले 69,117 । इनका जोड़ बैठता है 1, 46, 947। अगर इनमें लोकदल के पप्पू गुर्जर के 5462 वोट जोड़ दिए जाएं तो संख्या हो जाती है 1, 52, 409 यानी भाजपा के सामेंद्र तोमर से 39, 184 वोट ज्यादा। सिवाल खास से भाजपा के विजयी उम्मीदवार जितेंद्र पाल सिंह को मिले 72,771 वोट। विपक्षी दलों के उम्मीदवारों में गठबंधन के गुलाम मुहम्मद को मिले 61,364, वोट, बसपा के नदीम चौहान को मिले 42, 479 वोट, रालोद के चौधरी यशवीर सिंह को मिले 44, 639 वोट। इन तीन का योग बैठता है 1, 48, 482 वोट। यानी भाजपा के उम्मीदवार के मुकाबले 75, 711 ज्यादा वोट। अब जरा सरधना सीट का आकलन देखें। भाजपा के विजयी उम्मीदवार संगीत सोम को वोट पड़े 97, 833 वोट। गठबंधन के अतुल प्रधान को मिले 76, 240 वोट, बसपा के इमरान कुरैशी को मिले 57, 181 वोट, रालोद के वकील चौधरी को मिले 3971 वोट। तीनों उम्मीदवारों के वोटों का जोड़ बैठता है 1, 37, 392 वोट यानी भाजपा के उम्मीदवार से 39, 559 ज्यादा। हस्तिनापुर सीट पर भाजपा के विजयी उम्मीदवार दिनेश खटीक को मिले 99, 374 वोट। विपक्षी दलों में बसपा के योगेश वर्मा को मिले 63, 329, गठबंधन के प्रभुदयाल को मिले 48, 951 , रालोद की कुसुम को मिले 6, 531। तीनों विपक्षी दलों का योग बैठता है 1, 18, 828 वोट। यानी भाजपा के उम्मीदवार से 19, 434 ज्यादा। किठौर विधानसभा के वोटों का गणित इस तरह रहा है। भाजपा के विजयी उम्मीदवार सत्यवीर सिंह त्यागी को मिले 89, 817 वोट। विपक्षी दलों में गठबंधन के शाहिद मंजूर को मिले 79, 017, बसपा के गजराज सिंह को मिले 61, 915 । रालोद के मतलूब गौड़ को मिले 6, 543 वोट। तीनों विपक्षी दलों के वोट का योग होता है 1, 47, 475 वोट यानी भाजपा के उम्मीदवार से 57, 658 ज्यादा। मेरठ कैंट एक मात्र सीट है, जिस पर भाजपा के सत्यप्रकाश अग्रवाल को विपक्षी दलों के कुल वोट से ज्यादा मिले हैं। मेरठ शहर सीट पर मुसलिम वोटों का बंटवारा नहीं हुआ और यहां पर बसपा से कोई मजबूत उम्मीदवार नहीं था, इसलिए सपा गठबंधन के रफीक अंसारी की एकतरफा जीत हुई। उत्तर प्रदेश की सभी सीटों का पर इस तरह का आकलन किया जाए तो पता चलेगा कि विपक्षी दलों को भाजपा से कहीं ज्यादा वोट मिले हैं। बहरहाल, इसे ‘मोदी मैजिक’ की जीत कहें या विपक्ष के बिखराव की वजह से मिली जीत, लेकिन सच यही है कि भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की है। जिस तरह विपक्षी दलों को वोट पड़े हैं, उससे इस आशंका को खारिज किया जा सकता है कि ईवीएम मशीनों से छेड़छाड़ की गई है। अब विपक्षी दलों के लिए सोचने का वक्त यह है कि वह अलग अलग होकर हारते रहते रहना चाहते हैं या एक महागठबंधन बनाकर भाजपा का रथ रोकना चाहते हैं। 2019 ज्यादा दूर नहीं है। अगर विपक्षी दल एकजुट नहीं हुए तो 2019 में भी 2014 दोहराया जा सकता है।