विकल्प के न होने की अवधारणा लोकतंत्र विरोधी है

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लोकसभा चुनाव 2019 के छह चरण पूर्ण हो चुके हैं, और अब केवल अंतिम चरण जो 19 मई को समपन्न होगा शेष है। अभी तक जो चुनाव हुए हैं, उनके बारे में सोशल मीडिया पर अलग अलग लोग अलग अलग तरह से अपना अनुमान बता रहे हैं। चूंकि आदर्श आचार संहिता के अनुसार न्यूज़ चैनल और अखबार एक्जिट पोल के परिणाम नहीं दिखा सकते क्योंकि इससे आगे के चुनाव परिणामों के प्रभावित होने का अंदेशा रहता है, अतः वहां कोई सर्वे नहीं दिखाया जा रहा है। जबकि सोशल मीडिया पर ऐसी कोई रोक या नियंत्रण सम्भव नहीं है तो लोग अपने अपने पूर्वानुमान बता रहे हैं। पर ये सब अनुमान हैं। असल तो परिणाम ही महत्वपूर्ण है जो 23 मई की रात तक आ जायेगा।
आधुनिक लोकतंत्र का जन्म ब्रिटेन की संवैधानिक व्यवस्था के विकास से शुरू हुआ। यह भी एक अनोखापन है कि, ब्रिटेन एक सम्राट के अधीन राज्य भी है और वह एक लोकतांत्रिक राज्य भी है। 1600 में हुए ग्लोरियस रिवोल्यूशन ने ब्रिटेन को निरंकुश राजशाही से दूर कर दिया था। वहां राजा राज्य का प्रमुख ही नहीं है, बल्कि राष्ट्रगान से लेकर हर जगह उसका प्रशस्तिगान गूंजता है, पर वह कुछ करता नहीं है और न ही उसे कोई भी प्रशासनिक, अधिकार प्राप्त है। वह वही करता है जो उसका मंत्रिमंडल कहता है। यह एक परिपक्व लोकशाही है और इस संसदीय लोकतंत्र की प्रशंसा की जानी चाहिये कि दुनिया के अनेक राज्यों में राजशाही खत्म हुयी, लोकतंत्र आया और फिर उसी लोकतंत्र से लोकप्रियता के उन्माद पर चढ़ कर यूरोप में एक समय तानाशाही उत्पन्न हुयी और फिर यह सब बदल गया और पुनः लोकतंत्र आ गया। ब्रिटेन में ऐसा परिवर्तन पिछले 400 सालों में बिल्कुल नहीं हुआ है तथा परंपराओं और नज़ीरों पर  आधारित उनका अलिखित संविधान आज भी मजबूती से खड़ा है।
जब संविधान सभा का गठन हुआ तो संविधान को ड्राफ्ट करने का काम डॉ बीआर अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित एक समिति को सौंपा गया। संविधान ड्राफ्ट करने के पहले समिति ने दुनिया भर के संविधानों का अध्ययन किया और यह पाया कि ब्रिटिश संसदीय प्रणाली ही सबसे अधिक उपयुक्त होगी। एक मत अमेरिकन राष्ट्रपति व्यवस्था के पक्ष में भी था, पर अमेरिकी राष्ट्रपति के अत्यंत अधिकार संपन्न होने के कारण एकाधिकारवाद के आसन्न खतरे को भांप करके वह प्रणाली छोड़ दी गयी और ब्रिटेन की तर्ज पर द्विसदनीय व्यवस्था अपना ली गयी। भारत का स्वरूप बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक, बहुसमाजी और भिन्न भिन्न परंपरा का है और स्वभावतः संघीय ढांचे होने और पिछले दो सौ साल से ब्रिटिश प्रशासनिक और न्यायप्रणाली से प्रशासित होने के कारण, देश संसदीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिये अभ्यस्त हो गया था। अतः 1950 में यही संविधान अंगीकृत किया गया और 1952 से इसी आधार पर चुनाव संपन्न होते रहे हैं।
भारत अकेले आज़ाद नहीं हुआ था, बल्कि भारत के साथ पाकिस्तान भी इसी भूमि से काट कर आज़ाद किया गया था। पर 1947 के बाद, पाकिस्तान ने लोकतंत्र, के साथ साथ सैनिक तानाशाही के दिन भी खूब देखे पर भारत जिसने संसदीय लोकतंत्र का मार्ग अपनाया वह चुनाव दर चुनाव मज़बूत होकर निखरता गया जबकि, पाकिस्तान खुद ही एक तानाशाही में बिखर गया। लोकतंत्र में नेता की लोकप्रियता एक आवश्यक तत्व है, और वही संसदीय चुनाव का आधार बनता है। संसदीय लोकतंत्र में जनता की सारी शक्ति चुने हुए जनप्रतिनिधियों जिसे संसद कहते हैं में निहित रहती है और संसद में संख्याबल में सबसे बड़ा दल या दलों का समूह ही सत्ता ग्रहण करता है और उसी का नेता प्रधानमंत्री बनता है जो मंत्रिमंडल का गठन करता है। संवैधानिक परंपराओं के अनुसार, प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल का प्रमुख तो होता है पर वह सुपर पीएम जैसा कि इंदिरा गांधी के समय 1971 के बाद, यह परिवर्तन आया वैसा नहीं होता है। वह फर्स्ट अमांग इक्वल्स होता है। बराबरो में सबसे प्रथम। संसदीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया में किसी एक व्यक्ति के पास शक्ति केंद्र नहीं रहता है बल्कि वह शक्तिकेन्द्र मंत्रिमंडल में बंट जाता है। इससे अधिनायकवाद के खतरे कम हो जाते हैं। जबकि अमेरिकी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रपति को अपार शक्तियां प्राप्त होती है। पर इन सबके बावजूद अमेरिकी नेतृत्व कभी तानाशाही की ओर नहीं बढ़ा जबकि हमारे यहां यह खतरा 1975 से 77 तक एक बार आ चुका है। अब फिर इसकी सुगबुगाहट मिलने लगी है।
जवाहरलाल नेहरू की लोकप्रियता अपार थी। वे जब तक जीवित रहे प्रधानमंत्री रहे। ऐसा भी बिल्कुल नहीं था कि उनसे गलतियां नहीं हुयी। पर उन गलतियों के बावजूद वे सत्ता से नहीं हटाये गये। नेहरू एक प्रगतिशील उदारवादी और लोकतांत्रिक विचारधारा से प्रभावित थे। उन्होंने अपनी लोकप्रियता का उपयोग कभी भी सत्ता पर अपनी जिद भरी पकड़ बनाये रखने के लिये नहीं किया। यह अलग बात है कि उनका व्यक्तित्व और प्रभामंडल इतना व्यापक था कि उनका विरोध कम ही होता था। फिर लोकप्रियता के उस नशे में उनके विरोधी, पार्टी से अलग थलग भी किये गए। कांग्रेस के अध्यक्ष रहे पुरुषोत्तम दास टंडन जी का उदाहरण सामने है। लोकप्रियता या अतिशय लोकप्रियता एक नशे की तरह होती है जो जहां तक मैं देखता हूँ, वहां तक मेरा साम्राज्य है का मनोभाव पैदा करने लगते हैं। लोकतंत्र में अतिशय लोकप्रिय नेता अगर उदार, स्पष्ट निर्णय लेने वाला, साफ नीयत, योग्य और दूरदर्शी है तो वह अपने फैसले से देश का कायापलट कर सकता है अन्यथा वह देश को एक ऐसे गर्त में लाकर खड़ा कर देता है कि वहां से उबरने में एक पीढ़ी लग जाती है। जर्मनी के इतिहास में बिस्मार्क और हिटलर के अध्ययन और दोनों में अंतर से आप मेरी बात समझ जाएंगे।
2019 के चुनाव में अक्सर नरेंद मोदी के पिछले पांच साल के कार्यकाल को मजबूत सरकार कह कर प्रचारित किया जाता है और यह भी कहा जाता है कि मज़बूत सरकार चाहिये या मजबूर सरकार। निश्चित ही लोगों को मजबूत, स्थिर और दृढ़निश्चयी सरकार की कामना होती है जो पांच साल देश की सत्ता संभाले। पर मज़बूत का तात्पर्य अहंकारी, ज़िद्दी और ठस सरकार नहीं होता है। एक ऐसी मज़बूत सरकार जो संवैधानिक परंपराओं, जनता से किये अपने वायदों, और जनसमस्याओं के समाधान के प्रति मजबूती से कार्य करे न कि लोकप्रियता और भीड़ की तरह खड़े अनुगामियों के फैलाये मायाजाल में ही घिर कर खुद को निर्विकल्प मान ले। यह मजबूती नहीं है, मजबूती और लोकप्रियता के दंभ का दुरूपयोग है। ऐसी सरकार, देश, समाज, और जनता का भला नहीं कर पाती बल्कि एक कॉकस से घिर जाती है और उसी कॉकस के ही आंखों और दिमाग से देखती है तथा अपने फैसले लेती है। यही मनोवृत्ति सरकार को अपराजेय भाव से ग्रस्त कर देती है और जनता के लिये, जनता के द्वारा जनता का शासन का मूल ही समाप्त हो जाता है और फिर एक तानाशाह का जन्म होने लगता है।
1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपात काल की घोषणा की तो, अचानक वह अपराजेय और निर्विकल्प घोषित हो गयीं। इंदिरा इज इंडिया, एंड इंडिया इस इंदिरा ने उन्हें देश के सबसे मजबूत सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में बना दिया। फिर वे उसी खोल में घिर गयीं और जो उनके इर्द गिर्द कॉकस बना उसने जमकर मनमानी की। तब सोशल मीडिया तो था नहीं और न ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया था। अखबार थे। पर अखबारों पर सेंसर था। कुछ अखबारों ने अपना प्रकाशन रोक दिया, और कुछ जी जहाँपनाह की मोड में आ गए पर कुछ उस आंधी में भी खड़े रहे और जो भी विरोध कर सकते थे उन्होंने किया। इंडियन एक्सप्रेस ऐसे ही अखबारों में एक था। पर जब 1977 में आम चुनाव हुआ तो 1971 के बांग्लादेश युद्ध की महानायिका और तमाम प्रगतिशील जनहित के कदमों को उठाने वाली इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस अपदस्थ हो गयी। वे खुद भी चुनाव हार गयीं। उनकी दुर्दम्य क्षवि, मज़बूत सरकार और किये गए काम 1977 मे कोई मुद्दा नहीं बने बल्कि मुद्दा बना तो उनकी ज़िद, अहंकार और तानाशाही मनोवृत्ति।
इसी प्रकार का एक और शब्द 2014 के बाद अधिक प्रचलित हो गया है, कि अगर मोदी नहीं तो कौन ? यह निर्विकल्पता का भाव है। सबसे पहले यह शब्द 1963 में राजनीति में आया था जब नेहरू की तबीयत खराब हुई थी तब अखबारों ने आफ्टर नेहरू हूं के नाम से खबरें लिखी थी। नेहरू का भारतीय जनमानस पर जादुई प्रभाव था। वह किसी प्रचार और आईटी सेल की साजिश का परिणाम नहीं था बल्कि वह एक सामान्य जिज्ञासा थी कि कहीं नेहरू के बाद निर्विकल्पता की स्थिति न उत्पन्न हो जाय। नेहरू के प्रति लोगों में जो दीवानापन था उससे यह सवाल उठा था। पर नेहरू 27 मई 1964 को दिवंगत हो गए पर शून्य और अराजकता हो गयी हो, ऐसा बिलकुल नहीं हुआ। लाल बहादुर शास्त्री के रूप में  देश को एक योग्य  प्रधानमंत्री मिला। यह अलग बात है कि वह लंबे समय तक जीवित नहीं रहे। इंदिरा गांधी के समय भी जब 1977 का चुनाव हो रहा था तब भी यह सवाल उठाया जाता था कि जनता पार्टी में प्रधानमंत्री कौन बनेगा। अब फिर यही सवाल उठ रहा है कि मोदी नहीं तो कौन ? पूरा चुनाव एक व्यक्ति के गढे गये प्रभामण्डल के आधार पर लड़ा जा रहा है और यही कृत्य लोकतंत्र को उसके मूल उद्देश्य से भटका देता है । फिर न तो दल महत्वपूर्ण होता है, न सांसद, न संसद और न संवैधानिक संस्थायें और न संविधान। सिर्फ एक व्यक्ति महत्वपूर्ण हो जाता है और उसकी ज़िद, सनक, विचार, और उसके इर्दगिर्द घूमते हुए लगुये भगुये जिसे अंग्रेजी में कॉकस या किचेन कैबिनेट कह सकते हैं पूरा देश चलाने लगते हैं। अन्य सब गौण हो जाते है।
संसदीय लोकतंत्र में जनता प्रधानमंत्री चुनती ही नहीं है वह सांसद चुनती है। और सबसे अधिक सांसदों का समूह या दल अपना नेता चुनता है जो पीएम बनता है। निर्विकल्पता का सवाल ही अलोकतांत्रिक है। राजशाही में यह तय नहीं होता कि गद्दी का वारिस कौन होगा, राजा बड़ा पुत्र या छोटा पुत्र या दत्तक पुत्र। यह या तो हिंसा से तय होता है या जो मज़बूत होता है वह गद्दी पर बैठ जाता है। पर लोकशाही में बहुमत से जनता जिसे चुनती है वह संसद में जाता है और संसद में जिसका बहुमत होता है वह बहुमत से जिसे चुनता है वह पीएम बनता है। इसी निर्विकल्पता ने इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर को जन्म दिया। जब कि इन दोनों ही देशों में चुनाव हुए थे पर अतिशय लोकप्रियता, अपने नेता के प्रति अंधभक्ति और दुष्प्रचार की आंधी ने जनता को भ्रमित कर दिया और दुनिया ने अपने समय का सबसे क्रूर तानाशाही दौर देखा। दोनों मज़बूत थे। अपार लोकप्रिय थे। अपने समर्थकों में पूजे जाते थे। लोगों को उनसे उम्मीदें भी बहुत थीं। पर दोनों ने अपने अपने देश और जनता का क्या किया यह सभी जानते हैं और खुद भी बेहद दुःखद मृत्यु को प्राप्त हुये।
2014 के बाद अगर इस मज़बूत सरकार के कुछ कार्यों की समीक्षा कीजिएगा तो यह साफ लगेगा कि अधिकतर महत्वपूर्ण निर्णय एक ही व्यक्ति द्वारा लिये गये हैं। वह व्यक्ति हैं प्रधानमंत्री। जैसे नोटबंदी का फैसला देखें। यह निर्णय केवल और केवल प्रधानमंत्री ने अपनी सनक से लिया है। आरबीआई के गवर्नर से न तो कोई राय मशविरा हुआ और न ही इस बात पर विचार हुआ कि इसका क्रियान्वयन कैसे किया जाएगा और जो दिक्कतें आएंगी उनसे कैसे निपटा जाएगा। इसके उद्देश्य तक स्पष्ट नहीं थे। वह आतंकवाद, नक़ली नोट, काला धन, कैशलेस, लेसकैश इकोनॉमी के बीच पेंडुलम की तरह घूमता रहा। एक भी उद्देश्य पूरा नहीं हुआ बल्कि अब तो यह कहा जाने लगा है कि यह आज़ाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला होगा। जीएसटी के बारे में भी इतनी अधिक जटिल प्रक्रिया कर दी गयी कि उसका असर सीधे सीधे व्यापार पर पड़ा। राफेल विमान सौदा तो केवल और केवल प्रधानमंत्री द्वारा ही तय किया गया है। यह सब एक मज़बूत सरकार के मज़बूत प्रधानमंत्री का कारनामा है। यह सरकार की मजबूती नहीं बल्कि सरकार का दंभ और समस्त स्थापित लोकतांत्रिक और प्रशासनिक प्रक्रिया को दरकिनार करके अपनी मनमर्जी से फैसले लेना है। मज़बूत सरकार से अगर यही आशय है तो ऐसी सरकार देश को कभी भी मंडी के गर्त में पहुंचा सकती है।
नोटबंदी के पहले और नोटबंदी के बाद अगर देश के आर्थिक सूचकांकों, जीडीपी, बेरोजगारी के आंकड़ों, औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े, आयात निर्यात के आंकड़े, बैंकों के एनपीए से जुड़े आंकड़ों का अध्ययन किया जाय तो तस्वीर भयावह दिखेगी। 2016 के बाद सरकार ने बेरोजगारी के आंकड़े देने बंद कर दिए हैं। पर आंख मूंद लेने से संकट नहीं टल जाता है। संकट टलता है उसका आंख खोल कर सामना करने से। वास्तविक जीडीपी क्या है यह किसी को मालूम नहीं। पर जो जीडीपी के आंकड़े अब बताए जा रहे हैं वे जिन कम्पनियों के उत्पादन के आधार पर हैं उनमें से 30 कंपनियों का कोई अस्तित्व ही नहीं है। औद्योगिक उत्पादन पहली बार शून्य से नीचे आया है। राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। ऑटोमोबाइल, रीयल स्टेट, आदि में बुरी तरह कमी आयी है। यह ज़रूर कहा जा रहा है कि हम तीसरी बड़ी आर्थिक ताकत बनने जा रहे हैं पर सरकार के ही आंकड़े इस दावे की पोल खोल दे रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पीएम को इन हालातों की जानकारी नहीं है, बल्कि उन्हें इन सबकी पूरी जानकारी है इसी लिये तीन महीने से चल रहे चुनाव प्रचार में उन्होंने अपने किये महत्वपूर्ण कार्यो को कभी गिनाया ही नहीं, और सारा प्रचार, नेहरू, इंदिरा, राजीव के ही कार्यकाल पर केंद्रित रहा और अब भी है।
लोकतंत्र में सरकार चुनना जितना ज़रूरी होता है उतना ही ज़रूरी होता है लोकतंत्र को बचाये रखना । लोकतंत्र का केवल यही अर्थ नहीं है कि हम हर पांच साल पर ईवीएम का बटन दबाने के बाद प्रसन्न मुखमुद्रा में अमिट स्याही से पुती अपनी अंगुली दिखा दे। लोकतंत्र के लिये जरूरी है संविधान और सभी संवैधानिक संस्थाओं को नियम कानून की पटरी से उतरने न दें। संसद, न्यायपालिका, सीएजी, निर्वाचन आयोग, संघ लोकसेवा आयोग आदि आदि जो संवैधानिक संस्थायें संविधान के अंतर्गत गठित हैं अपने अधिकार और शक्तियों के साथ अपने उद्देश्य में सफल हों। जनता का जागरूक होना और सतर्क रहना बहुत आवश्यक है। लोकप्रिय से लोकप्रिय नेता भी गलती कर सकता है, वह अपने स्वार्थ में इन संस्थाओं का दुरुपयोग कर सकता है यह जनता को मान कर चलना होगा। लोकप्रियता या सम्मान का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि किसी भी नेता को चाहे वह कितना भी काबिल क्यों न हो उसे निंदा और आलोचना से परे मान लिया जाय। लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च है और उसे ही सतर्क और जागरूक रहना होगा। कोई भी व्यक्ति लोकतांत्रिक प्रणाली में निर्विकल्प नहीं हो सकता है। वह योग्य हो सकता है। कुशल हो सकता है। कोई भी व्यक्तिनेकनीयत हो सकता है पर वह भी निर्विकल्प नहीं है। निर्विकल्पता की अवधारणा ही लोकतंत्र विरोधी अवधारणा है।

© विजय शंकर सिंह