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22 साल की उमर में विधुर हो गए थे महाकवि निराला

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‘निराला’ हिंदी साहित्य का एक ऐसा व्यक्तित्व, जिनका नाम सामने आते ही आम जनमानस श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है. 21 फरवरी, 1896 (11 माघ शुक्ल, संवत 1953) को बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल रियासत में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म हुआ था, मगर वसंत पंचमी को उनका जन्मदिन मनाया जाता है. निराला’ अपना जन्म-दिवस वसंत पंचमी को ही मानते थे.
माता-पिता से उन्हें ‘सूर्य कुमार’ नाम मिला था, लेकिन काव्य क्षेत्र में पदार्पण के बाद उन्होंने अपना नाम बदल कर ‘सूर्यकांत’ कर लिया.बाद में अपने निराले स्वभाव के चलते ही ‘निराला’ उपनाम अपने नाम के साथ जोड़ लिया.
22 वर्ष की अल्पायु में विधुर होने के बाद जीवन का वसंत भी उनके लिए पत्नी-वियोग का पतझड़ बन गया.हालांकि पत्नी की प्रेरणा से निराला ने बंगाल से उत्तर प्रदेश अपने गांव गढ़ाकोला (जनपद उन्नाव) लौटकर हिंदी साहित्य का व्यापक अध्ययन किया.
उनकी पहली कविता ‘जूही की कली’ (1916) तत्कालीन प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशन योग्य न मानकर संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लौटा दी थी. आज उसकी गिनती छायावाद की श्रेष्ठतम कविताओं में होती है. 1923 में निराला ने ‘मतवाला’ नामक पत्रिका का संपादन आरंभ किया, जो हिंदी का पहला व्यंग्यात्मक पत्र था.
1935 में पुत्री के निधन के बाद वह विक्षिप्त-सी अवस्था में कभी लखनऊ, कभी सीतापुर, कभी काशी तो कभी प्रयाग का चक्कर लगाते रहे.1950 से वह दारागंज, प्रयाग में स्थायी रूप से रहने लगे. वहीं 15 अक्तूबर 1961 को उनका देहावसान हुआ। अवरोधों और दैवीय विपत्तियों के बावजूद निराला कभी साहित्य-रचना से उदासीन नहीं हुए.
महाप्राण निराला पर जितना लिखा गया है और जितना लिखा जाए, वह काफी कम है.भारतीय हिंदी साहित्य में वह एक मात्र ऐसे महाकवि हैं, जिनके शब्द आज भी उतने ही अपराजेय, प्रभावी, शाश्वत और आधुनिक नजर आते हैं. उनकी रचनाओं पर जितने तरह की बातें हैं, उनके व्यक्तित्व पर भी उससे कुछ कम नहीं. पूरे साहित्य जगत को ज्ञात है कि निराला जी को पूरी गंभीरता और निष्ठा से सबसे पहले प्रसिद्ध हिंदी आलोचक रामविलास शर्मा ने ‘निराला की साहित्य साधना’ पुस्तक-श्रृंखला के माध्यम से सुपरिचित कराया था.

कबीर, तुलसी और रवींद्र का संगम हैं निराला

छायावाद के चार स्तंभों में से एक और मुक्तक छंद की कविताओं के प्रवर्तक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में डॉ राम विलास शर्मा ने ‘निराला की साहित्य साधना’ में लिखा है,
‘कबीर का फक्कड़पन, तुलसी का लोक-मांगल्य और रवींद्र का सौंदर्यबोध की त्रयी निराला में न केवल विलीन होती है, बल्कि उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को ऐसी ऊंचाइयां प्रदान करती है, जिसका उदाहरण हिंदी साहित्य में विरल है.’

निराला और पंत की मित्रता और मनमुटाव

इन दोनों समकालीन महानतम कवियों के बीच बड़ा ही अजीब रिश्ता रहा. दोनों अलग-अलग वजहों से एक दूसरे के मुरीद भी रहे और एक दूसरे की बुरी तरह आलोचना और निंदा भी करते रहे. दोनों ने पहले एक दूसरे की रचनाएं ‘सरस्वती’ में पढ़ीं और पत्र लिखकर तारीफ की. मगर जब दोनों आपस में मिले तो काफी बातें बदल गईं.
रामविलास शर्मा लिखते हैं कि,
“ निराला हमेशा से राजकुमार बनना चाहते थे. और पंत राजकुमार थे. 65 कमरों के मकान में रहने वाला. हाथ में हीरे की अंगूठी. गोविंद बल्लभ पंत जैसे प्रतिष्ठित लोगों के साथ उठने-बैठने वाला. निराला ये सब पाना चाहते थे और पंत इन सबको जी रहे थे. दूसरी ओर निराला के पास एक अलग तरह का वैराग्य, उग्रता और आकर्षण था जो पंत के पास नहीं था.”
निराला ने अपना उपन्यास ‘अप्सरा’ जिसे वो हिंदी के अभाव खत्म करने वाला मानते थे, पंत को समर्पित कर दिया. लखनऊ प्रवास के दौरान निराला सायटिका के भीषण दर्द से पीड़ित थे. पंत उनकी कमर पर चढ़कर पैरों से मालिश किया करते थे.दोनों के बीच की घनिष्ठता इतनी बढ़ी कि निराला कहते कि तुम राधा हो मैं कृष्ण हूं.पंत को भी निराला का चेहरा कृष्ण जैसा नीला लगता.

रामविलास शर्मा ने पंत और निराला के बीच मनमुटाव का जिक्र करते हुए कहा है कि,

‘पंत ने  निराला के मुक्त छंद को कई बार खोटा कहा था. हालांकि कई बार पंत ने निराला के मुक्त छंद की प्रशंसा भी की है.’
इसी तरह के तमाम कारणों से पंत और निराला की मित्रता में कुछ कड़वाहट सी आ गई. एक ओर पंत को सारे सम्मान मिलते जा रहे थे और खुद को तुलसी, टैगोर और ग़ालिब की श्रेणी का प्रतिभावान कवि मानने वाले निराला कुंठित हो रहे थे.

अपनी उत्तर-पीढ़ी के लिए बहायी गंगा

धर्मवीर भारती ने निराला पर लिखे एक संस्मरण-लेख में उनकी तुलना पृथ्वी पर गंगा उतार कर लाने वाले भगीरथ से की थी. धर्मवीर भारती ने लिखा है,
‘भगीरथ अपने पूर्वजों के लिए गंगा लेकर आये थे. निराला अपनी उत्तर-पीढ़ी के लिए.’
निराला को याद करते हुए भगीरथ की याद आये या ग्रीक मिथकीय देवता प्रमेथियस या फिर प्रमथ्यु की, तो यह आश्चर्य की बात नहीं है.

जनमानस को उद्वेलित करती हैं निराला की रचनाएँ

निराला की बेबाक काव्य साधना जितना अधिक उनके व्यक्तित्व को निखारती हैं, उससे कहीं अधिक उनकी आलोचना, कहानी और उपन्यास समेत साहित्य की अन्य विधा जनमानस को उद्वेलित करती हैं. सही मायने में देखा जाये, निराला ने हिंदी के विष को पिया और उसके बदले में उन्होने अमृत का वरदान दिया. 1923 में जब कोलकाता से ‘मतवाला’ का प्रकाशन शुरू किया गया, तो उस समय निराला ने उसके कवर पेज पर दो पंक्तियां लिखी थी, ‘अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग-विराग भरा प्याला/पीते हैं, जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला.’

औघड़दानी ‘निराला’

महादेवी वर्मा अपने संस्मरण ‘पथ के साथी’ में लिखती हैं ‘उनके अस्त-व्यस्त जीवन को व्यवस्थित करने के असफल प्रयासों का स्मरण कर मुझे आज भी हंसी आ जाती है. एक बार अपनी निर्बंध उदारता की तीव्र आलोचना सुनने के बाद उन्होंने व्यवस्थित रहने का वचन दिया. संयोग से तभी उन्हें कहीं से 300 रुपए मिल गए। अगले दिन पहुंचे. बोले-50 रुपये चाहिए. किसी विद्यार्थी का परीक्षा-शुल्क जमा करना है, अन्यथा वह परीक्षा में नहीं बैठ सकेगा.
संध्या होते-होते किसी साहित्यिक मित्र को 60 रुपये देने की जरूरत पड़ गई. दूसरे दिन लखनऊ के किसी तांगे वाले की मां को 40 रुपये मनीआर्डर करना पड़ा.दोपहर को किसी दिवंगत मित्र की भतीजी के विवाह के लिए 100 रुपये देना अनिवार्य हो गया.इस तरह तीसरे दिन उनकी जमा धनराशि समाप्त हो गई और तब उनके व्यवस्थापक के नाते यह दान-खाता मेरे हिस्से आ पड़ा.मैंने समझ लिया कि यदि ऐसे औघड़दानी को न रोका जाए तो वह मुझे भी अपनी स्थिति में पहुंचाकर दम लेंगे.‘फक्कड़ होते हुए भी वह ‘अतिथि देवो भव’ मंत्र को कभी नहीं भूले. महादेवी लिखती हैं ‘उनके अतिथि यहां भोजन करने आ जावें, सुनकर उनकी दृष्टि में बालकों जैसा विस्मय छलक आता है.जो अपना घर समझ कर आए हैं, उनसे यह कैसे कहा जाए कि उन्हें भोजन के लिए दूसरे घर जाना होगा.भोजन बनाने से लेकर जूठे बर्तन मांजने तक का काम भी वह अपने अतिथि देवता के लिए सहर्ष करते.’
कहते हैं, एक वृद्धा ने घनघोर जाड़े के दिनों में निराला को बेटा कह दिया. वृद्धाएँ प्रायः युवकों को बेटा या बच्चा कहकर संबोधित करती हैं.वह वृद्धा तो निराला को बेटा कहकर चुप हो गई लेकिन कवि निराला के लिए बेटा एक अर्थवान शब्द था. वे इस संबोधन से बेचैन हो उठे. अगर वे इस बुढ़िया के बेटा हैं तो क्या उन्हें इस वृद्धा को अर्थात्‌ अपनी माँ को इस तरह सर्दी में ठिठुरते छोड़ देना चाहिए. संयोग से उन्हीं दिनों निराला ने अपने लिए एक अच्छी रजाई बनवाई थी. उन्होंने वह रजाई उस बुढ़‍िया को दे दी. यह एक साधारण उदाहरण है कि शब्दों को महत्व देने वाला कवि शब्दार्थ की साधना जीवन में कैसे करता है.
धन से निराला की सेवा नही की जा सकती
निराला जी की लेखन क्षमता की प्रशंसा करते हुए हरिवंश राय बच्चन ने लिखा हैं कि,
‘निराला की कलम में वह शक्ति है, पर निराला को अपनी आवश्यकता पूर्ति करने को पैसे नहीं चाहिए. उनकी नजर दूसरे की आवश्यकताओं पर जाती है.उन्हें तो कुबेर का धन भी दे दिया जाए तो वे औरों को दे डालेंगे. ऐसे दानी को मान (दान) करने को धन कौन देगा. कितना देगा? और अब तो वे अपने पैसे का हिसाब- किताब भी नहीं रख सकते.उनके नाम से खाने वालों की संख्या उनके चारों ओर बढ़ रही है. मेरा विश्वास है कि धन से निराला की सेवा नहीं की जा सकती.’
निराला रामचरित मानस के रचयिता तुलसी दास को अपना प्रतिनिधि कवि मानते थे और रामविलास शर्मा निराला जी को.निराला पर रामविलास शर्मा लिखते हैं,
‘यह कवि अपराजेय निराला,
जिसको मिला गरल का प्याला;
ढहा और तन टूट चुका है,
पर जिसका माथा न झुका है;
शिथिल त्वचा ढलढल है छाती,
लेकिन अभी संभाले थाती,
और उठाये विजय पताका-
यह कवि है अपनी जनता का!’