2014 में किये वादों का क्या हुआ ?

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मैं आप के साथ लोकसभा चुनाव 2014 का भाजपा का संकल्प पत्र 2014 साझा कर रहा हूँ। सबका साथ सबका विकास के नारे के साथ वह चुनाव अनोखा था और उसके वादे तो और भी अलबेले थे। यह उन वादों की फेहरिस्त है। आप स्वतः तय कीजिये कि किन किन वादों का क्या हुआ और अब उन पर क्या हो रहा है। एक एक वादे पर हुआ क्या यह मैं बाद में लिखूंगा, पहले आप खुद ही इन्हें देखें और अब इन वादों का नाम भी ये वादाफरोश नहीं लेते।

 
और हां इनके सुबूत भी मांगिये। सुबूत मांगना देशद्रोह नहीं है, सुबूत मांगना आप के जिंदा रहने और जिंदा दिखने की पहचान है। महज आक्रामकता का चोला ओढ़ कर कोई चीखता हुआ, आप की देशभक्ति पर सवाल खड़ा करने लगे और आप डर जाँय, इस मनोवृत्ति से बाहर आइये। सुबूत मांगिये और दृढ़ता से मांगिये। सरकार के बूते न देश होता है न जनता बल्कि जनता के ही बल पर देश भी है और सरकार तो जनता के रहमोकरम पर है ही।
चुनाव के अवसर पर मुद्दा बदल योजना के बहकावे में न आएं. भाजपा के नेता नरेन्द्र मोदी  औऱ अन्य चुनाव प्रचार के जिस नाटकीय और तमाशाई दौर में अब चल रहे हैं यह अप्रत्याशित नहीं है। अप्रत्याशित तब होता जब वे इस नाटकीय और तमाशाई दौर में नहीं आते। 2016 के यूपी चुनाव में कब्रिस्तान और श्मशान के प्रतीक नारे  मतदान के कुछ दिन पहले आये थे। जब लगा कि ध्रुवीकरण के अलावा कोई अन्य विकल्प है ही नहीं इनके पास। इस बार ये प्रतीक  अभी आ गए हैं। इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि यह साम्प्रदायिक और ध्रुवीकरण की राजनीति का अपराह्न काल है। यह साम्रदायिक और ध्रुवीकरण की राजनीति की शुरुआत है। अभी और प्रतीक लाये जाएंगे, और विम्ब गढ़े जाएंगे और यह पूरी कोशिश होगी कि चुनाव 2014 के वादों, सरकार की उपलब्धियों, और जनहित के मुद्दों से सरक कर साम्प्रदायिक राजनीति के पंक में जा गिरे ताकि देश मे एक उन्माद का वातावरण बने।
ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि प्रधानमंत्री सहित सारी सरकार यह बात जानती है कि पिछले पांच साल में सरकार ने जो भी आर्थिक कदम नोटबंदी, जीएसटी, स्टैंड अप, स्टार्ट अप आदि आदि  उठाये गये उनके परिणाम जनता के लिये घातक और कुछ चहेते पूंजीपतियों के लिये बेहतर साबित हुये। धन भले ही पूंजीपति दे दें पर वोट तो जनता ही देगी। जनता का ध्यान उसकी समस्याओ की ओर जाय ही नहीं इसका सबसे कारगर और इनका आजमाया नुस्खा है साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण। इससे हमें बचना होगा।
वे धर्म, सांप्रदायिकता, हिन्दू मुस्लिम पर जो भी बोलते हैं, उन्हें बोलने दीजिये। उन्हें न रोकिये और न उनसे इन मुद्दों पर उलझिए। उन्हें याद दिलाइये 2014 के किये वादे। उन्हें याद दिलाइये नोटबन्दी, जीएसटी की दुश्वारियां, उन्हें याद दिलाइये उनके उन विदेशी दौरे जिनमे उनके चहेते पूंजीपतियों को लाभ मिला और पहुंचाया गया है, उन्हें याद दिलाइये 2016 से बंद बेरोजगारी के आंकड़े, उन्हें याद दिलाइये, बढ़ता बजट घाटा और घटता कर संग्रह, उन्हें याद दिलाइये, घटता उत्पादन और घटती हुयी औद्योगिक इकाइयां, उन्हें याद दिलाइये शनै शनै दम तोड़ती हुयी सरकारी कंपनियां, उन्हें याद दिलाइये 22 लाख रिक्तियां उन्हें याद दिलाइये कि क्या उम्मीदें इनसे आप ने संजोयी थीं और क्या मिला आपको। सरकार और सत्तारूढ़ दल के मुद्दों पर मत जाइए। अपने मुद्दे जो आप को सुखी, समृद्ध जीवन की ओर ले जाते हैं उन्हें उठाइये। धर्मांधता के मुद्दे जनता का नही  धर्मांधता पर आधारित दल और नेताओं को लाभ पहुंचाते हैं।
अपराधबोध का मनोविज्ञान समझिये । अक्सर कोई व्यक्ति जब यह कहे कि वह कसम खा कर कह रहा कि झूठ नहीं बोलता, झूठे वादे नहीं करता, तो यह बात समझ लीजिए कि वह यह झूठ कह रहा है। दुनियाभर के राजनीतिक दल चुनाव के दौरान झूठे वायदे करते हैं और भारत के राजनेता भी अपवाद नहीं है। दुनियाभर में जनता अलग अलग वैचारिक गुटों में बंट कर उन वादों की बखिया उधेड़ती है और मीन मेख निकाल कर के प्रदर्शन करती है अपनी सरकार से जवाब मांगती है और सुबूत तलब करती है, पर दुनिया मे कहीं भी आंदोलित और सवाल पूछने वाली जनता को देशद्रोही नहीं कहा जाता। लेकिन आज हर वह आदमी देशद्रोह का जुर्म कर रहा है जो सरकार से प्रश्न पूछ रहा है। सवाल का चिह्न ( ? ) जो प्रतीकात्मक रूप से अंकुश की तरह है सरकार और सरकार के समर्थकों को असहज कर दे रहा है।
मैं इसी प्रवित्ति के खिलाफ हूँ। जवाबदेही लोकतंत्र की पहली शर्त है और सवाल करने का अधिकार जनतंत्र की बुनियाद है। यह बुनियाद दरकने न दीजिये। पिछले पांच सालों की एक ‘ उपलब्धि ‘ यह भी रही है कि हमने सरकार को सर्वोच्च और सरकार के मुखिया को परमेश्वर मान लिया है। जानबूझकर कर ऐसा वातावरण बनाया गया कि जो भी इन पर उंगली उठाएगा उसे देशद्रोही करार दे दिया जाएगा। यह मानसिक दासता की ओर ले जाने का एक उपक्रम है ताकि हम पर सत्ता की हनक और भावुकता की अफीम की पिनक में राज किया जा सके।

और अंत में ग़ालिब का यह कालजयी शेर भी पढ़ लें,

तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।

© विजय शंकर सिंह